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9. अत-तौबा    [ कुल आयतें - 129 ]

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●═══════════════════✒
   मुशरिकों (बहुदेववादियों) से जिनसे तुमने संधि की थी, विरक्ति (की उदघोषणा) है अल्लाह और उसके रसूल की ओर से। (1)
_______________________________
    "अतः इस धरती में चार महीने और चल-फिर लो और यह बात जान लो कि तुम अल्लाह के क़ाबू से बाहर नहीं जा सकते और यह कि अल्लाह इनकार करनेवालों को अपमानित करता है।" (2)
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    सार्वजनिक उदघोषणा है अल्लाह और उसके रसूल की ओर से,बड़े हज के दिन लोगों के लिए, कि "अल्लाह मुशरिकों के प्रतिज़िम्मेदारी से बरी है और उसकारसूल भी। अब यदि तुम तौबा कर लो, तो यह तुम्हारे ही लिए अच्छा है, किन्तु यदि तुम मुँह मोड़ते हो, तो जान लो कि तुम अल्लाह के क़ाबू से बाहर नहीं जा सकते।" और इनकार करनेवालों के लिए एक दुखद यातना की शुभ-सूचना दे दो। (3)
_______________________________
   सिवाय उन मुशरिकों के जिनसे तुमने संधि-समझौते किए,फिर उन्होंने तुम्हारे साथ अपने वचन को पूर्ण करने में कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुद्ध किसी की सहायता ही की, तो उनके साथ उनकी संधि को उन लोगों के निर्धारित समय तक पूरा करो। निश्चय ही अल्लाह को डर रखनेवाले प्रिय हैं। (4)
_______________________________
   फिर, जब हराम (प्रतिष्ठित) महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो, उन्हें पकड़ो और उन्हें घेरो और हर घात की जगह उनकी ताक मेंबैठो। फिर यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कातदें तो उनका मार्ग छोड़ दो, निश्चय ही अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है। (5)
_______________________________
    और यदि मुशरिकों में से कोई तुमसे शरण माँगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दो, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं।(6)
_______________________________
    इन मुशरिकों को किसी संधि की कोई ज़िम्मेदारी अल्लाह और उसके रसूल पर कैसे बाक़ी रह सकती है? - उन लोगों का मामला इससे अलग है, जिनसे तुमने मस्जिदे-हराम (काबा) के पास संधि की थी, तो जब तक वे तुम्हारे साथ सीधे रहें, तब तक तुम भी उनके साथ सीधे रहो। निश्चय ही अल्लाह को डर रखनेवाले प्रिय हैं। - (7)
_______________________________
    कैसे बाक़ी रह सकती है? जबकि उनका हाल यह है कि यदि वेतुम्हें दबा पाएँ तो वे न तुम्हारे विषय में किसी नाते-रिश्ते का ख़याल रखें औरन किसी अभिवचन का। वे अपने मुँह ही से तुम्हें राज़ी करते हैं, किन्तु उनके दिल इनकार करते रहते हैं और उनमेंअधिकतर अवज्ञाकारी हैं। (8)
_______________________________
    उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले थोड़ा-सा मूल्य स्वीकार किया और इस प्रकार वेउसका मार्ग अपनाने से रुक गए।निश्चय ही बहुत बुरा है, जो कुछ वे कर रहे हैं। (9)
_______________________________
    किसी मोमिन के बारे में न तो नाते-रिश्ते का ख़याल रखतेहैं और न किसी अभिवचन का। वही लोग हैं जिन्होंने सीमा का उल्लंघन किया। (10)
_______________________________
    अतः यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो वे धर्म के भाई हैं। औरहम उन लोगों के लिए आयतें खोल-खोलकर बयान करते हैं, जो जानना चाहें। (11)
_______________________________
    और यदि अपने अभिवचन के पश्चात वे अपनी क़समॊं कॊ तॊड़ डालॆं और तुम्हारॆ दीन (धर्म) पर चॊटें करनॆ लगॆं, तॊ फिर कुफ़्र (अधर्म) कॆ सरदारों सॆ युद्ध करॊ, उनकी क़समॆं कुछ नहीं, ताकि वॆ बाज़ आ जाएँ। (12)
_______________________________
  क्या तुम ऐसॆ लॊगॊं सॆ नहीं लड़ॊगॆ जिन्हॊंनॆ अपनी क़समें तोड़ डालीं और रसूल कोनिकाल देना चाहा और वही हैं जिन्होंने तुमसे छेड़ में पहल की? क्या तुम उनसे डरते हो? यदि तुम मोमिन हो तो इसका ज़्यादा हक़दार अल्लाह है कि तुम उससे डरो। (13)
_______________________________
   उनसे लड़ो। अल्लाह तुम्हारे हाथों से उन्हें यातना देगा और उन्हें अपमानित करेगा और उनके मुक़ाबले में वह तुम्हारी सहायता करेगा। और ईमानवाले लोगों के दिलों का दुखमोचन करेगा; (14)
_______________________________
    उनके दिलों का क्रोध मिटाएगा, अल्लाह जिसे चाहेगा,उसपर दया-दृष्टि डालेगा। अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है। (15)
_______________________________
  क्या तुमने यह समझ रखा है कि तुम ऐसे ही छोड़ दिए जाओगे,हालाँकि अल्लाह ने अभी उन लोगों को छाँटा ही नहीं, जिन्होंने तुममें से जिहाद किया और अल्लाह और उसके रसूल और मोमिनों को छोड़कर किसी कोघनिष्ठ मित्र नहीं बनाया? तुमजो कुछ भी करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है। (16)
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   यह मुशरिकों का काम नहीं कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें और उसके प्रबंधक हों, जबकि वे स्वयं अपने विरुद्ध कुफ़्र की गवाही दे रहे हैं। उन लोगों का सारा किया-धरा अकारथ गया और वे आग में सदैव रहेंगे। (17)
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    अल्लाह की मस्जिदों का प्रबंधक और उसे आबाद करनेवाला वही हो सकता है जो अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाया, नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से न डरा। अतः ऐसे ही लोग, आशा है कि सीधा मार्ग पानेवाले होंगे। (18)
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    क्या तुमने हाजियों को पानी पिलाने और मस्जिदे-हराम (काबा) के प्रबंध को उस व्यक्ति के काम के बराबर ठहरालिया है, जो अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाया और उसने अल्लाह के मार्ग में संघर्ष किया? अल्लाह की दृष्टि में वे बराबर नहीं। और अल्लाह अत्याचारी लोगों को मार्ग नहीं दिखाता। (19)
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    जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और अल्लाह के मार्ग में अपने मालों और अपनी जानों से जिहाद किया, अल्लाह के यहाँ दर्जे में वे बहुत बड़े हैं और वही सफल हैं। (20)
_______________________________
   उन्हें उनका रब अपनी दयालुता और प्रसन्नता और ऐसे बाग़ों की शुभ-सूचना देता है, जिनमें उनके लिए स्थायी सुख-सामग्री है।(21)
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    उनमें वे सदैव रहेंगे। निस्संदेह अल्लाह के पास बड़ा बदला है। (22)
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    ऐ ईमान लानेवालो! अपने बाप और अपने भाइयों को अपने मित्रन बनाओ यदि ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र उन्हें प्रिय हो। तुममें से जो कोई उन्हें अपनामित्र बनाएगा, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी होंगे। (23)
_______________________________
    कह दो, "यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे भाई,तुम्हारी पत्नियों और तुम्हारे रिश्ते-नातेवाले औरमाल, जो तुमने कमाए हैं और कारोबार जिसके मन्दा पड़ जाने का तुम्हें भय है और घर जिन्हें तुम पसन्द करते हो, तुम्हे अल्लाह और उसके रसूल और उसके मार्ग में जिहाद करनेसे अधिक प्रिय हैं तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना फ़ैसला ले आए। औऱअल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्ग नहीं दिखाता।" (24)
_______________________________
    अल्लाह बहुत-से अवसरों पर तुम्हारी सहायता कर चुका है और हुनैन (की लड़ाई) के दिन भी,जब तुम अपनी अधिकता पर फूल गए,तो वह तुम्हारे कुछ काम न आई और धरती अपनी विशालता के बावजूद तुम पर तंग हो गई। फिर तुम पीठ फेरकर भाग खड़े हुए। (25)
_______________________________
    अन्ततः अल्लाह ने अपने रसूल पर और मोमिनों पर अपनी सकीनत (प्रशान्ति) उतारी और ऐसी सेनाएँ उतारीं जिनको तुमने नहीं देखा। और इनकार करनेवालों को यातना दी, और यही इनकार करनेवालों का बदला है। (26)
_______________________________
    फिर इसके बाद अल्लाह जिसकोचाहता है उसे तौबा नसीब करता है। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है। (27)
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   ऐ ईमान लानेवालो! मुशरिक तोबस अपवित्र ही हैं। अतः इस वर्ष के पश्चात वे मस्जिदे-हराम के पास न आएँ। और यदि तुम्हें निर्धनता का भय हो तोआगे यदि अल्लाह चाहेगा तो तुम्हें अपने अनुग्रह से समृद्ध कर देगा। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त तत्वदर्शी है।(28)
_______________________________
   वे किताबवाले जो न अल्लाह पर ईमान रखते हैं और न अन्तिम दिन पर और न अल्लाह और उसके रसूल के हराम ठहराए हुए को हराम ठहराते हैं और न सत्यधर्म का अनुपालन करते हैं, उनसे लड़ो, यहाँ तक कि वे सत्ता से विलग होकर और छोटे (अधीनस्थ) बनकर जिज़्या देने लगें। (29)
_______________________________
   यहूदी कहते हैं, "उज़ैर अल्लाह का बेटा है।" और ईसाई कहते हैं, "मसीह अल्लाह का बेटा है" ये उनकी अपने मुँह कीबातें हैं। ये उन लोगों की-सी बातें कर रहे हैं जो इससे पहले इनकार कर चुके हैं। अल्लाह की मार इन पर! ये कहाँ से औंधे हुए जा रहे हैं!(30)
_______________________________
    उन्होंने अल्लाह से हटकर अपने धर्मज्ञाताओं और संसार-त्यागी संतों और मरयम के बेटेईसा को अपने रब बना लिए हैं - हालाँकि उन्हें इसके सिवा और कोई आदेश नहीं दिया गया था कि अकेले इष्ट-पूज्य की वे बन्दगी करें, जिसके सिवा कोई और पूज्य नहीं। उसकी महिमा केप्रतिकूल है वह शिर्क जो ये लोग करते हैं। - (31)
_______________________________
    चाहते हैं कि अल्लाह के प्रकाश को अपने मुँह से बुझा दें, किन्तु अल्लाह अपने प्रकाश को पूर्ण किए बिना नहीं रहेगा, चाहे इनकार करनेवालों को अप्रिय ही लगे। (32)
_______________________________
   वही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्यधर्म के साथ भेजा ताकि उसे तमाम दीन (धर्म) पर प्रभावी कर दे, चाहे मुशरिकों को बुरा लगे। (33)
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    ऐ ईमान लानेवालो! अवश्य ही बहुत-से धर्मज्ञाता और संसार-त्यागी संत ऐसे हैं जो लोगों के माल नाहक़ खाते हैं और अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं, और जो लोग सोना और चाँदी एकत्र करके रखते हैं और उन्हें अल्लाह के मार्ग में ख़र्च नहीं करते, उन्हें दुखदयातना की शुभ-सूचना दे दो। (34)
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    जिस दिन उनको जहन्नम की आग में तपाया जाएगा फिर उससे उनके ललाटों और उनके पहलुओं और उनकी पीठों को दाग़ा जाएगा(और कहा जाएगा), "यही है जो तुमने अपने लिए संचय किया, तो जो कुछ तुम संचित करते रहे हो,उसका मज़ा चखो!" (35)
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    निस्संदेह महीनों की संख्या - अल्लाह के अध्यादेश में उस दिन से जब उसने आकाशों और धरती को पैदा किया - अल्लाहकी दृष्टि में बारह महीने हैं। उनमें चार आदर के हैं, यही सीधा दीन (धर्म) है। अतः तुम उन (महीनों) में अपने ऊपर अत्याचार न करो। और मुशरिकों से तुम सबके सब लड़ो, जिस प्रकार वे सब मिलकर तुमसे लड़ते हैं। और जान लो कि अल्लाह डर रखनेवालों के साथ है। (36)
_______________________________
    (आदर के महीनों का) हटाना तो बस कुफ़्र में एक वृद्धि है, जिससे इनकार करनेवाले गुमराही में पड़ते हैं। किसी वर्ष वे उसे हलाल (वैध) ठहरा लेते हैं और किसी वर्ष उसको हराम ठहरा लेते हैं, ताकि अल्लाह के आदृत (महीनों) की संख्या पूरी कर लें, और इस प्रकार अल्लाह के हराम किए हुए को वैध ठहरा लें। उनके अपने बुरे कर्म उनके लिए सुहाने हो गए हैं और अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को सीधा मार्ग नहीं दिखाता। (37)
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   ऐ ईमान लानेवालो! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाता है, "अल्लाह के मार्गमें निकलो" तो तुम धरती पर ढहेजाते हो? क्या तुम आख़िरत की अपेक्षा सांसारिक जीवन पर राज़ी हो गए? सांसारिक जीवन की सुख-सामग्री तो आख़िरत के हिसाब में है कुछ थोड़ी ही! (38)
_______________________________
    यदि तुम न निकलोगे तो वह तुम्हें दुखद यातना देगा और वह तुम्हारी जगह दूसरे गरोह को ले आएगा और तुम उसका कुछ न बिगाड़ सकोगे। और अल्लाह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है। (39)
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    यदि तुम उसकी सहायता न भी करो तो अल्लाह उसकी सहायता उससमय कर चुका है जब इनकार करनेवालों ने उसे इस स्थिति में निकाला कि वह केवल दो में का दूसरा था, जब वे दोनों गुफामें थे। जबकि वह अपने साथी से कह रहा था, "शोकाकुल न हो। अवश्यमेव अल्लाह हमारे साथ है।" फिर अल्लाह ने उसपर अपनी ओर से सकीनत (प्रशान्ति) उतारी और उसकी सहायता ऐसी सेनाओं से की जिन्हें तुम देखन सके और इनकार करनेवालों का बोल नीचा कर दिया, बोल तो अल्लाह ही का ऊँचा रहता है। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।(40)
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   हलके और बोझिल निकल पड़ो औरअल्लाह के मार्ग में अपने मालों और अपनी जानों के साथ जिहाद करो! यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जानो। (41)
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    यदि निकट (भविष्य में) ही कुछ मिलनेवाला होता और सफ़र भी हलका होता तो वे अवश्य तुम्हारे पीछे चल पड़ते, किन्तु मार्ग की दूरी उन्हें कठिन और बहुत दीर्घ प्रतीत हुई। अब वे अल्लाह की क़समें खाएँगे कि, "यदि हममें इसकी सामर्थ्य होती तो हम अवश्य तुम्हारे साथ निकलते।" वे अपने आपको तबाही में डाल रहे हैं और अल्लाह भली-भाँति जानता है कि निश्चय ही वे झूठे हैं। (42)
_______________________________
    अल्लाह ने तुम्हें क्षमा कर दिया! तुमने उन्हें क्यों अनुमति दे दी, यहाँ तक कि जो लोग सच्चे हैं वे तुम्हारे सामने प्रकट हो जाते और झूठोंको भी तुम जान लेते? (43)
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    जो लोग अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान रखते हैं, वे तुमसे कभी यह नहीं चाहेंगे किउन्हें अपने मालों और अपनी जानों के साथ जिहाद करने से माफ़ रखा जाए। और अल्लाह डर रखनेवालों को भली-भाँति जानता है। (44)
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    तुमसे छुट्टी तो बस वही लोग माँगते हैं जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान नहीं रखते, और जिनके दिल सन्देह में पड़े हैं, तो वे अपने सन्देह ही में डाँवाडोल हो रहे हैं। (45)
_______________________________
    यदि वे निकलने का इरादा करते तो इसके लिए कुछ सामग्रीजुटाते, किन्तु अल्लाह ने उनके उठने को नापसन्द किया तोउसने उन्हें रोक दिया। उनसे कह दिया गया, "बैठनेवालों के साथ बैठ रहो।" (46)
_______________________________
    यदि वे तुम्हारे साथ निकलते भी तो तुम्हारे अन्दर ख़राबी के सिवा किसी और चीज़ की अभिवृद्धि नहीं करते। और वे तुम्हारे बीच उपद्रव मचाने के लिए दौड़-धूप करते और तुममें उनकी सुननेवाले हैं। और अल्लाह अत्याचारियोंको भली-भाँति जानता है। (47)
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    उन्होंने तो इससे पहले भी उपद्रव मचाना चाहा था और वे तुम्हारे विरुद्ध घटनाओं और मामलों के उलटने-पलटने में लगे रहे, यहाँ तक कि हक़ आ गया और अल्लाह का आदेश प्रकट होकररहा, यद्यपि उन्हें अप्रिय हीलगता रहा। (48)
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    उनमें कोई है, जो कहता है,"मुझे इजाज़त दे दीजिए, मुझे फ़ितने में न डालिए।" जान लो कि वे फ़ितने में तो पड़ ही चुके हैं और निश्चय ही जहन्नमभी इनकार करनेवालों को घेर रही है। (49)
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    यदि तुम्हें कोई अच्छी हालत पेश आती है, तो उन्हें बुरा लगता है औऱ यदि तुम पर कोई मुसीबत आ जाती है, तो वे कहते हैं, "हमने तो अपना काम पहले ही सँभाल लिया था।" और वेख़ुश होते हुए पलटते हैं। (50)
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  कह दो, "हमें कुछ भी पेश नहीं आ सकता सिवाय उसके जो अल्लाह ने लिख दिया है। वही हमारा स्वामी है। और ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।" (51)
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    कहो, "तुम हमारे लिए दो भलाइयों में से किसी एक भलाई के सिवा किसकी प्रतीक्षा कर सकते हो? जबकि हमें तुम्हारे हक़ में इसी की प्रतीक्षा है कि अल्लाह अपनी ओर से तुम्हेंकोई यातना देता है या हमारे हाथों दिलाता है। अच्छा तो तुम भी प्रतीक्षा करो, हम भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहे हैं।" (52)
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   कह दो, "तुम चाहे स्वेच्छापूर्वक ख़र्च करो याअनिच्छापूर्वक, तुमसे कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा। निस्संदेह तुम अवज्ञाकारी लोग हो।" (53)
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    उनके ख़र्च के स्वीकृत होने में इसके अतिरिक्त और कोई चीज़ बाधक नहीं कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया। नमाज़ को आते हैं तो बस हारे जी आते हैं और ख़र्च करते हैं,तो अनिच्छापूर्वक ही। (54)
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    अतः उनके माल तुम्हें मोहित न करें और न उनकी सन्तान ही। अल्लाह तो बस यह चाहता है कि उनके द्वारा उन्हें सांसारिक जीवन में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे इनकार करनेवाले ही रहें। (55)
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   वे अल्लाह की क़समें खाते हैं कि वे तुम्हीं में से हैं,हालाँकि वे तुममें से नहीं हैं, बल्कि वे ऐसे लोग हैं जो त्रस्त रहते हैं। (56)
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    यदि वे कोई शरण पा लें या कोई गुफा या घुस बैठने की जगह,तो अवश्य ही वे बगटुट उसकी ओर उल्टे भाग जाएँ। (57)
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    और उनमें से कुछ लोग सदक़ों के विषय में तुम पर चोटें करते हैं। किन्तु यदि उन्हें उसमें से दे दिया जाए तो प्रसन्न हो जाएँ और यदि उन्हें उसमें से न दिया गया तो क्या देखोगे कि वे क्रोधितहोने लगते हैं। (58)
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    यदि अल्लाह और उसके रसूल ने जो कुछ उन्हें दिया था, उसपर वे राज़ी रहते और कहते कि "हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है। अल्लाह हमें जल्द ही अपनेअनुग्रह से देगा और उसका रसूलभी। हम तो अल्लाह ही की ओऱ उन्मुख हैं।" (तो यह उनके लिए अच्छा होता)। (59)
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    सदक़े तो बस ग़रीबों, मुहताजों और उन लोगों के लिए हैं, जो इस काम पर नियुक्त होंऔर उनके लिए जिनके दिलों को आकृष्ट करना औऱ परचाना अभीष्ट हो और गर्दनों को छुड़ाने और क़र्ज़दारों और तावान भरनेवालों की सहायता करने में, अल्लाह के मार्ग में, मुसाफ़िरों की सहायता करने में लगाने के लिए हैं। यह अल्लाह की ओर से ठहराया हुआ हुक्म है। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त तत्वदर्शी है। (60)
_______________________________
    और उनमें कुछ लोग ऐसे हैं, जो नबी को दुख देते हैं और कहते हैं, "वह तो निरा कान है!"कह दो, "वह सर्वथा कान तुम्हारी भलाई के लिए है। वह अल्लाह पर ईमान रखता है और ईमानवालों पर भी विश्वास करता है। और उन लोगों के लिए सर्वथा दयालुता है जो तुममें से ईमान लाए हैं। रहे वे लोग जो अल्लाह के रसूल को दुख देते हैं, उनके लिए दुखद यातना है।" (61)
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    वे तुम लोगों के सामने अल्लाह की क़समें खाते हैं, ताकि तुम्हें राज़ी कर लें, हालाँकि यदि वे मोमिन हैं तो अल्लाह और उसका रसूल इसके ज़्यादा हक़दार हैं कि उनको राज़ी करें। (62)
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    क्या उन्हें मालूम नहीं किजो अल्लाह औऱ उसके रसूल का विरोध करता है, उसके लिए जहन्नम की आग है जिसमें वह सदैव रहेगा। यह बहुत बड़ी रुसवाई है। (63)
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   मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) डर रहे हैं कि कहीं उनके बारे में कोई ऐसी सूरा न अवतरित हो जाए जो वह सब कुछ उनपर खोल दे, जो उनके दिलों में है। कह दो,"मज़ाक़ उड़ा लो, अल्लाह तो उसे प्रकट करके रहेगा, जिसका तुम्हें डर है।" (64)
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    और यदि उनसे पूछो तो कह देंगे, "हम तो केवल बातें और हँसी-खेल कर रहे थे।" कहो,"क्या अल्लाह, उसकी आयतों और उसके रसूल के साथ हँसी-मज़ाक़करते थे? (65)
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    बहाने न बनाओ, तुमने अपने ईमान के पश्चात इनकार किया। यदि हम तुम्हारे कुछ लोगों कोक्षमा भी कर दें तो भी कुछ लोगों को यातना देकर ही रहेंगे, क्योंकि वे अपराधी हैं।" (66)
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    मुनाफ़िक़ पुरुष और मुनाफ़िक़ स्त्रियाँ सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। वे बुराई का हुक्म देते हैं और भलाई से रोकते हैं और हाथों को बन्द किए रहते हैं। वे अल्लाह को भूल बैठे तो उसने भी उन्हें भुला दिया। निश्चय ही मुनाफ़िक़ अवज्ञाकारी हैं। (67)
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    अल्लाह ने मुनाफ़िक़ पुरुषों और मुनाफ़िक़ स्त्रियों और इनकार करनेवालों से जहन्नम की आग कावादा किया है, जिसमें वे सदैव ही रहेंगे। वही उनके लिए काफ़ी है और अल्लाह ने उनपर लानत की, और उनके लिए स्थाई यातना है। (68)
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    उन लोगों की तरह, जो तुमसे पहले गुज़र चुके हैं, वे शक्ति में तुमसे बढ़-चढ़कर थेऔर माल और औलाद में भी बढ़े हुए थे। फिर उन्होंने अपने हिस्से का मज़ा उठाना चाहा औरतुमने भी अपने हिस्से का मज़ाउठाना चाहा, जिस प्रकार कि तुमसे पहले के लोगों ने अपने हिस्से का मज़ा उठाना चाहा, और जिस वाद-विवाद में तुम पड़े थे तुम भी वाद-विवाद में पड़ गए। ये वही लोग हैं जिनका किया-धरा दुनिया और आख़िरत में अकारथ गया, और वही घाटे में हैं। (69)
_______________________________
   क्या उन्हें उन लोगों का वृत्तान्त नहीं पहुँचा जो उनसे पहले गुज़रे हैं - नूह केलोगों का, आद और समूद का, और इबराहीम की क़ौम का और मदयनवालों का और उन बस्तियों का जिन्हें उलट दिया गया? उनके रसूल उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आए थे, फिर अल्लाह ऐसा न था कि वह उनपर अत्याचार करता, किन्तु वे स्वयं अपने-आप पर अत्याचार कररहे थे।(70)
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    रहे मोमिन मर्द औऱ मोमिन औरतें, वे सब परस्पर एक-दूसरे के मित्र हैं। भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं। नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करते हैं। ये वे लोग हैं, जिनपर शीघ्र ही अल्लाह दया करेगा। निस्सन्देह अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।(71)
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   मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों से अल्लाह ने ऐसे बाग़ों का वादा किया है जिनकेनीचे नहरें बह रही होंगी, जिनमें वे सदैव रहेंगे और सदाबहार बाग़ों में पवित्र निवास गृहों का (भी वादा है) और, अल्लाह की प्रसन्नता और रज़ामन्दी का; जो सबसे बढ़कर है। यही सबसे बड़ी सफलता है। (72)
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    ऐ नबी! इनकार करनेवालों और मुनाफ़िक़ों से जिहाद करो और उनके साथ सख़्ती से पेश आओ। अन्ततः उनका ठिकाना जहन्नम है और वह जा पहुँचने की बहुत बुरी जगह है! (73)
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    वे अल्लाह की क़समें खाते हैं कि उन्होंने नहीं कहा, हालाँकि उन्होंने अवश्य ही कुफ़्र की बात कही है और अपने इस्लाम स्वीकार करने के पश्चात इनकार किया, और वह चाहा जो वे न पा सके। उनके प्रतिशोध का कारण तो यह है कि अल्लाह और उसके रसूल ने अपने अनुग्रह से उन्हें समृद्ध कर दिया। अब यदि वे तौबा कर लें तो उन्हीं के लिए अच्छा है और यदि उन्होंने मुँह मोड़ा तो अल्लाह उन्हें दुनिया और आख़िरत में दुखद यातना देगा और धरती में उनका न कोई मित्र होगा और न सहायक। (74)
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    और उनमें से कुछ लोग ऐसे भीहैं जिन्होंने अल्लाह को वचन दिया था कि "यदि उसने हमें अपने अनुग्रह से दिया तो हम अवश्य दान करेंगे और नेक होकररहेंगे।" (75)
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    किन्तु जब अल्लाह ने उन्हें अपने अनुग्रह से दिया तो वे उसमें कंजूसी करने लगे और पहलू बचाकर फिर गए। (76)
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    फिर परिणाम यह हुआ कि उसने उनके दिलों में उस दिन तक के लिए कपटाचार डाल दिया, जब वे उससे मिलेंगे, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह से जो प्रतिज्ञा की थी उसे भंग कर दिया और इसलिए भी कि वे झूठ बोलते रहे। (77)
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    क्या उन्हें ख़बर नहीं कि अल्लाह उनका भेद और उनकी कानाफूसियों को अच्छी तरह जानता है और यह कि अल्लाह परोक्ष की सारी बातों को भली-भाँति जानता है। (78)
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    जो लोग स्वेच्छापूर्वक देनेवाले मोमिनों पर उनके सदक़ों (दान) के विषय में चोटें करते हैं और उन लोगों का उपहास करते हैं, जिनके पास इसके सिवा कुछ नहीं जो वे मशक़्क़त उठाकर देते हैं, उन (उपहास करनेवालों) का उपहास अल्लाह ने किया और उनके लिए दुखद यातना है। (79)
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    तुम उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करो या उनके लिए क्षमा की प्रार्थना न करो। यदि तुम उनके लिए सत्तर बार भी क्षमा की प्रार्थना करोगे,तो भी अल्लाह उन्हें क्षमा नहीं करेगा, यह इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और अल्लाह अवज्ञाकारियों को सीधा मार्ग नहीं दिखाता। (80)
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   पीछे रह जानेवाले अल्लाह के रसूल के पीछे अपने बैठ रहने पर प्रसन्न हुए। उन्हें यह नापसन्द हुआ कि अल्लाह के मार्ग में अपने मालों और अपनीजानों के साथ जिहाद करें। और उन्होंने कहा, "इस गर्मी में ननिकलो।" कह दो, "जहन्नम की आग इससे कहीं अधिक गर्म है," यदि वे समझ पाते (तो ऐसा न कहते)। (81)
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   अब चाहिए कि जो कुछ वे कमाते रहे हैं, उसके बदले में हँसें कम और रोएँ अधिक।(82)
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    अब यदि अल्लाह तुम्हें उनके किसी गरोह की ओर रुजू कर दे और भविष्य में वे तुमसे साथ निकलने की अनुमति चाहें तो कह देना, "तुम मेरे साथ कभी भी नहीं निकल सकते और न मेरे साथ होकर किसी शत्रु से लड़ सकते हो। तुम पहली बार बैठ रहने पर ही राज़ी हुए, तो अब पीछे रहनेवालों के साथ बैठे रहो।" (83)
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   और उनमें से जिस किसी व्यक्ति की मृत्यु हो उसकी जनाज़े की नमाज़ कभी न पढ़ना और न कभी उसकी क़ब्र पर खड़े होना। उन्होंने तो अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र कियाऔर मरे इस दशा में कि अवज्ञाकारी थे।(84)
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    और उनके माल और उनकी औलाद तुम्हें मोहित न करें। अल्लाह तो बस यह चाहता है कि उनके द्वारा उन्हें संसार में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों। (85)
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    और जब कोई सूरा उतरती है कि"अल्लाह पर ईमान लाओ और उसके रसूल के साथ होकर जिहाद करो।" तो उनके सामर्थ्यवान लोग तुमसे छुट्टी माँगने लगते हैं और कहते हैं कि "हमें छोड़दो कि हम बैठनेवालों के साथ रह जाएँ।" (86)
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   वे इसी पर राज़ी हुए कि पीछे रह जानेवाली स्त्रियों के साथ रह जाएँ और उनके दिलों पर तो मुहर लग गई है, अतः वे समझते नहीं। (87)
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    किन्तु, रसूल और उसके ईमानवाले साथियों ने अपने मालों और अपनी जानों के साथ जिहाद किया, और वही लोग हैं जिनके लिए भलाइयाँ हैं और वहीलोग हैं जो सफल हैं। (88)
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    अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, वे उनमें सदैव रहेंगे। यही बड़ी सफलता है। (89)
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    बहाने करनेवाले बद्दू भी आए कि उन्हें (बैठे रहने की) छुट्टी मिल जाए। और जो अल्लाहऔर उसके रसूल से झूठ बोले वे भी बैठे रहे। उनमें से जिन्होंने इनकार किया उन्हेंशीघ्र ही एक दुखद यातना पहुँचकर रहेगी। (90)
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    न तो कमज़ोरों के लिए कोई दोष की बात है और न बीमारों केलिए और न उन लोगों के लिए जिन्हें ख़र्च करने के लिए कुछ प्राप्त नहीं, जबकि वे अल्लाह और उसके रसूल के प्रतिनिष्ठावान हों। उत्तमकारों पर इलज़ाम की कोई गुंजाइश नहीं है। अल्लाह तो बड़ा क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है। (91)
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   और न उन लोगों पर आक्षेप करने की कोई गुंजाइश है जिनकाहाल यह है कि जब वे तुम्हारे पास आते हैं, कि तुम उनके लिए सवारी का प्रबन्ध कर दो, तुम कहते हो, "मुझे ऐसा कुछ प्राप्त नहीं जिसपर तुम्हें सवार करूँ।" वे इस दशा में लौटते हैं कि इस ग़म में उनकी आँखें आँसू बहा रही होती हैं कि वे अपने पास ख़र्च करने को कुछ नहीं पाते।(92)
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    इल्ज़ाम तो बस उनपर है जो धनवान होते हुए तुमसे छुट्टी माँगते हैं। वे इसपर राज़ी हुए कि पीछे डाले गए लोगों के साथ रह जाएँ। अल्लाह ने तो उनके दिलों पर मुहर लगा दी है,इसलिए वे जानते नहीं। (93)
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    जब तुम पलटकर उनके पास पहुँचोगे तो वे तुम्हारे सामने बहाने करेंगे। तुम कह देना, "बहाने न बनाओ। हम तु्म्हारी बात कदापि नहीं मानेंगे। हमें अल्लाह ने तुम्हारे वृत्तांत बता दिए हैं। अभी अल्लाह और उसका रसूलतुम्हारे काम को देखेगा, फिर तुम उसकी ओर लौटोगे, जो छिपे और खुले का ज्ञान रखता है। फिर जो कुछ तुम करते रहे हो वहतुम्हे बता देगा।" (94)
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    जब तुम पलटकर उनके पास जाओगे तो वे तुम्हारे सामने अल्लाह की क़समें खाएँगे, ताकि तुम उन्हें उनकी हालत परछोड़ दो। तो तुम उन्हें छोड़ ही दो। निश्चय ही वे गन्दगी हैं और उनका ठिकाना जहन्नम है। जो कुछ वे कमाते रहे हैं, यह उसी का बदला है। (95)
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    वे तुम्हारे सामने क़समें खाएँगे ताकि तुम उनसे राज़ी हो जाओ, किन्तु यदि तुम उनसे राज़ी भी हो गए तो अल्लाह ऐसे लोगों से कदापि राज़ी न होगा, जो अवज्ञाकारी हैं। (96)
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    ये बद्दू इनकार और कपटाचारमें बहुत-ही बढ़े हुए हैं। और इसी के ज़्यादा योग्य हैं कि उनकी सीमाओं से अनभिज्ञ रहें,जिसे अल्लाह ने अपने रसूल पर अवतरित किया है। अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है। (97)
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    और कुछ बद्दू ऐसे हैं कि वेजो कुछ ख़र्च करते हैं, उसे तावान समझते हैं और तुम्हारे हक़ में बुरी गर्दिशों (बुरे दिन) की प्रतीक्षा में हैं, बुरी गर्दिश में तो वही हैं। अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है। (98)
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    और बद्दुओं में ऐसे भी लोग हैं जो अल्लाह और अन्तिम दिन को मानते हैं और जो कुछ ख़र्च करते हैं, उसे अल्लाह के यहाँ निकटताओं का और रसूल की दुआओंको प्राप्त करने का साधन बनाते हैं। हाँ! निस्संदेह वहउनके हक़ में निकटता ही है। अल्लाह उन्हें शीघ्र ही अपनी दयालुता में दाख़िल करेगा। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है। (99)
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    सबसे पहले आगे बढ़नेवाले मुहाजिर और अनसार और जिन्होंने भली प्रकार उनका अनुसरण किया, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे उससे राज़ी हुए। और उसने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, वे उनमें सदैव रहेंगे। यही बड़ी सफलता है। (100)
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और तुम्हारे आस-पास के बद्दुओं में और मदीनावालों में कुछ ऐसे कपटाचारी हैं जो कपट-नीति पर जमे हुए हैं। उनको तुम नहीं जानते, हम उन्हें भली-भाँति जानते हैं। शीघ्र ही हम उन्हें दो बार यातना देंगे। फिर वे एक बड़ी यातना की ओर लौटाए जाएँगे। (101)
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   और दूसरे कुछ लोग हैं जिन्होंने अपने गुनाहों का इक़रार किया। उन्होंने मिले-जुले कर्म किए, कुछ अच्छे और कुछ बुरे। आशा है कि अल्लाह की कृपा-दृष्टि उनपर हो। निस्संदेह अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है। (102)
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    तुम उनके माल में से दान लेकर उन्हें शुद्ध करो और उसके द्वारा उन (की आत्मा) को विकसित करो और उनके लिए दुआ करो। निस्संदेह तुम्हारी दुआउनके लिए सर्वथा परितोष है। अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है। (103)
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    क्या वे जानते नहीं कि अल्लाह ही अपने बन्दों की तौबा क़बूल करता है और सदक़े लेता है और यह कि अल्लाह ही तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान है। (104)
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    कह दो, "कर्म किए जाओ। अभी अल्लाह और उसका रसूल और ईमानवाले तुम्हारे कर्म को देखेंगे। फिर तुम उसकी ओर पलटोगे, जो छिपे और खुले को जानता है। फिर जो कुछ तुम करते रहे हो, वह सब तुम्हें बता देगा।"(105)
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    और कुछ दूसरे लोग भी हैं जिनका मामला अल्लाह का हुक्म आने तक स्थगित है, चाहे वह उन्हें यातना दे या उनकी तौबाक़बूल करे। अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है। (106)
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   और कुछ ऐसे लोग भी हैं , जिन्होंने मस्जिद बनाई इसलिएकि नुक़सान पहुँचाएँ और कुफ़्र करें और इसलिए कि ईमानवालों के बीच फूट डालें और उस व्यक्ति के घात लगाने का ठिकाना बनाएँ, जो इससे पहले अल्लाह और उसके रसूल से लड़ चुका है। वे निश्चय ही क़समें खाएँगे कि "हमने तो बस अच्छा ही चाहा था।" किन्तु अल्लाह गवाही देता है कि वे बिलकुल झूठे हैं। (107)
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    तुम कभी भी उसमें खड़े न होना। वह मस्जिद जिसकी आधारशिला पहले दिन ही से ईशपरायणता पर रखी गई है, वह इसकी ज़्यादा हक़दार है कि तुम उसमें खड़े हो। उसमें ऐसेलोग पाए जाते हैं, जो अच्छी तरह स्वच्छ रहना पसन्द करते हैं, और अल्लाह भी पाक-साफ़ रहनेवालों को पसन्द करता है। (108)
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    फिर क्या वह अच्छा है जिसने अपने भवन की आधारशिला अल्लाह के भय और उसकी ख़ुशी पर रखी है या वह, जिसने अपने भवन की आधारशिला किसी खाई के खोखले कगार पर रखी, जो गिरने ही को है। फिर वह उसे लेकर जहन्नम की आग में जा गिरा? अल्लाह तो अत्याचारी लोगों को सीधा मार्ग नहीं दिखाता। (109)
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    उनका यह भवन जो उन्होंने बनाया है, सदैव उनके दिलों में खटक बनकर रहेगा। हाँ, यदि उनके दिल ही टुकड़े-टुकड़े होजाएँ तो दूसरी बात है। अल्लाहतो सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्ततत्वदर्शी है। (110)
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    निस्संदेह अल्लाह ने ईमानवालों से उनके प्राण और उनके माल इसके बदले में ख़रीद लिए हैं कि उनके लिए जन्नत है। वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं, तो वे मारते भी हैंऔर मारे भी जाते हैं। यह उसके ज़िम्मे तौरात, इनजील और क़ुरआन में (किया गया) एक पक्का वादा है। और अल्लाह से बढ़कर अपने वादे को पूरा करनेवाला हो भी कौन सकता है? अतः अपने उस सौदे पर खु़शियाँमनाओ, जो सौदा तुमने उससे किया है। और यही सबसे बड़ी सफलता है।(111)
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    वे ऐसे हैं, जो तौबा करते हैं, बन्दगी करते हैं, स्तुति करते हैं, (अल्लाह के मार्ग में) भ्रमण करते हैं, (अल्लाह के आगे) झुकते हैं, सजदा करते हैं, भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं और अल्लाह की निर्धारित सीमाओं की रक्षा करते हैं -और इन ईमानवालों को शुभ-सूचना दे दो। (112)
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    नबी और ईमान लानेवालों के लिए उचित नहीं कि वे बहुदेववादियों के लिए क्षमा की प्रार्थना करें, यद्यपि वेउनके नातेदार ही क्यों न हों, जबकि उनपर यह बात खुल चुकी है कि वे भड़कती आगवाले हैं। (113)
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    इबराहीम ने अपने बाप के लिए जो क्षमा की प्रार्थना कीथी, वह तो केवल एक वादे के कारण की थी, जो वादा वह उससे कर चुका था। फिर जब उसपर यह बात खुल गई कि वह अल्लाह का शत्रु है तो वह उससे विरक्त हो गया। वास्तव में, इबराहीम बड़ा ही कोमल हृदय, अत्यन्त सहनशील था। (114)
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     अल्लाह ऐसा नहीं कि लोगों को पथभ्रष्ट ठहराए, जबकि वह उनको राह पर ला चुका हो, जब तक कि उन्हें साफ़-साफ़ वे बातेंबता न दे, जिनसे उन्हें बचना है। निस्संदेह अल्लाह हर चीज़ को भली-भाँति जानता है। (115)
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   आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह ही का है, वही जिलाता है और मारता है। अल्लाह से हटकर न तुम्हारा कोई मित्र हैऔर न सहायक। (116)
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     अल्लाह नबी पर मेहरबान हो गया और मुहाजिरों और अनसार परभी, जिन्होंने तंगी की घड़ी में उसका साथ दिया, इसके पश्चात कि उनमें से एक गरोह के दिल कुटिलता की ओर झुक गए थे। फिर उसने उनपर दया-दृष्टिदर्शाई। निस्संदेह, वह उनके लिए अत्यन्त करुणामय, दयावान है। (117)
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     और उन तीनों पर भी जो पीछे छोड़ दिए गए थे, यहाँ तक कि जब धरती विशाल होते हुए भी उनपर तंग हो गई और उनके प्राण उनपर दूभर हो गए और उन्होंने समझा कि अल्लाह से बचने के लिए कोई शरण नहीं मिल सकती, मिल सकती है तो उसी के यहाँ। फिर उसने उनपर कृपा-दृष्टि की ताकि वे पलट आएँ। निस्संदेह अल्लाह ही तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान है। (118)
_______________________________
    ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह का डर रखो और सच्चे लोगों के साथ हो जाओ। (119)
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    मदीनावालों और उनके आसपास के बद्दुओं को ऐसा नहीं चाहिएथा कि अल्लाह के रसूल को छोड़कर पीछे रह जाएँ और न यह कि उसकी जान के मुक़ाबले में उन्हें अपनी जान अधिक प्रिय हो, क्योंकि वह अल्लाह के मार्ग में प्यास या थकान या भूख की कोई भी तकलीफ़ उठाएँ या किसी ऐसी जगह क़दम रखें, जिससे काफ़िरों का क्रोध भड़के या जो चरका भी वे शत्रु को लगाएँ, उसपर उनके हक़ में अनिवार्यतः एक सुकर्म लिख लिया जाता है। निस्संदेह अल्लाह उत्तमकार का कर्मफल अकारथ नहीं जाने देता। (120)
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    और वे थो़ड़ा या ज़्यादा जो कुछ भी ख़र्च करें या (अल्लाह के मार्ग में) कोई घाटी पार करें, उनके हक़ में अनिवार्यतः लिख लिया जाता है,ताकि अल्लाह उन्हें उनके अच्छे कर्मों का बदला प्रदान करे। (121)
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    यह तो नहीं कि ईमानवाले सब के सब निकल खड़े हों, फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ कि उनके हर गरोह में से कुछ लोग निकलते, ताकि वे धर्म में समझ प्राप्तकरते और ताकि वे अपने लोगों को सचेत करते, जब वे उनकी ओर लौटते, ताकि वे (बुरे कर्मों से) बचते? (122)
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    ऐ ईमान लानेवालो! उन इनकार करनेवालों से लड़ो जो तुम्हारे निकट हैं और चाहिए कि वे तुममें सख़्ती पाएँ, और जान रखो कि अल्लाह डर रखनेवालों के साथ है। (123)
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    जब भी कोई सूरा अवतरित की गई, तो उनमें से कुछ लोग कहते हैं, "इसने तुममें से किसके ईमान को बढ़ाया?" हाँ, जो लोग ईमान लाए हैं इसने उनके ईमान को बढ़ाया है। और वे आनन्द मना रहे हैं। (124)
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    रहे वे लोग जिनके दिलों में रोग है, उनकी गन्दगी में अभिवृद्धि करते हुए उसने उन्हें उनकी अपनी गन्दगी में और आगे बढ़ा दिया। और वे मरे तो इनकार की दशा ही में। (125)
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   क्या वे देखते नहीं कि प्रत्येक वर्ष वॆ एक या दो बार आज़माइश में डाले जाते हैं? फिर भी न तो वे तौबा करते हैंऔर न चेतते। (126)
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    और जब कोई सूरा अवतरित होती है, तो वे परस्पर एक-दूसरे को देखने लगते हैं कि "तुम्हें कोई देख तो नहीं रहा है।" फिर पलट जाते हैं। अल्लाह ने उनके दिल फेर दिए, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझते नहीं हैं। (127)
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    तुम्हारे पास तुम्हीं में से एक रसूल आ गया है। तुम्हारा मुश्किल में पड़ना उसके लिए असह्य है। वह तुम्हारे लिए लालायित है। वह मोमिनों के प्रति अत्यन्त करुणामय, दयावान है। (128)
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    अब यदि वे मुँह मोड़ें तो कह दो, "मेरे लिए अल्लाह काफ़ीहै, उसके अतिरिक्त कोई पूज्य-प्रभु नहीं! उसी पर मैंने भरोसा किया और वही बड़े सिंहासन का प्रभु है।" (129)
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