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3.2 आले-इमरान    [ कुल आयतें - 200 ]

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सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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●═══════════════════✒
    अब तुम इनकार कैसे कर सकते हो, जबकि तुम्हें अल्लाह की आयतें पढ़कर सुनाई जा रही हैंऔर उसका रसूल तुम्हारे बीच मौजूद है? जो कोई अल्लाह को मज़बूती से पकड़ ले, वह सीधे मार्ग पर आ गया। (101)
_______________________________
    ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह का डर रखो, जैसा कि उसका डर रखने का हक़ है। और तुम्हारी मृत्यु बस इस दशा में आए कि तुम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो। (102)
_______________________________
   और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो। और अल्लाह की उस कृपा को याद करो जो तुमपर हुई। जब तुम आपस में एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों को परस्पर जोड़ दिया और तुम उसकी कृपा से भाई-भाई बन गए। तुम आग के एक गड्ढे के किनारे खड़े थे, तो अल्लाह ने उससे तुम्हें बचा लिया। इस प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम मार्ग पा लो। (103)
_______________________________
    और तुम्हें एक ऐसे समुदाय का रूप धारण कर लेना चाहिए जो नेकी की ओर बुलाए और भलाई का आदेश दे और बुराई से रोके। यही सफलता प्राप्त करनेवाले लोग हैं। (104)
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    तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो विभेद में पड़ गए, और इसके पश्चात कि उनके पास खुलीनिशानियाँ आ चुकी थीं, वे विभेद में पड़ गए। ये वही लोग हैं, जिनके लिए बड़ी (घोर) यातना है। (यह यातना उस दिन होगी) (105)
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    जिस दिन कितने ही चेहरे उज्ज्वल होंगे और कितने ही चेहरे काले पड़ जाएँगे, तो जिनके चेहरे काले पड़ गए होंगे (वे सदा यातना में ग्रस्त रहेंगे। खुली निशानियाँ आने के बाद जिन्होंने विभेद किया) उनसे कहा जाएगा, "क्या तुमने ईमान के पश्चात इनकार की नीति अपनाई? तो लो अब उस इनकार के बदले में जो तुम करते रहे हो, यातना का मज़ा चखो।" (106)
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    रहे वे लोग जिनके चेहरे उज्ज्वल होंगे, वे अल्लाह की दयालुता की छाया में होंगे। वे उसी में सदैव रहेंगे। (107)
_______________________________
  ये अल्लाह की आयतें हैं, जिन्हें हम हक़ के साथ तुम्हें सुना रहे हैं। अल्लाह संसारवालों पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करना चाहता। (108)
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    आकाशों और धरती में जो कुछ है अल्लाह ही का है, और सारे मामले अल्लाह ही की ओर लौटाए जाते हैं। (109)
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    तुम एक उत्तम समुदाय हो, जोलोगों के समक्ष लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो। और यदि किताबवाले भी ईमान लाते तो उनके लिए यह अच्छा होता। उनमें ईमानवाले भी हैं, किन्तु उनमें अधिकतर लोग अवज्ञाकारी ही हैं। (110)
_______________________________
    थोड़ा दुख पहुँचाने के अतिरिक्त वे तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। और यदि वे तुमसे लड़ेंगे, तो तुम्हें पीठ दिखा जाएँगे, फिर उन्हें कोई सहायता भी न मिलेगी। (111)
_______________________________
  वे जहाँ कहीं भी पाए गए उनपर ज़िल्लत (अपमान) थोप दी गई। किन्तु अल्लाह की रस्सी थामें या लोगों की रस्सी, तो और बात है। वे अल्लाह के प्रकोप के पात्र हुए और उनपर दशाहीनता थोप दी गई। यह इसलिएकि वे अल्लाह की आयतों का इनकार और नबियों को नाहक़ क़त्ल करते रहे हैं। और यह इसलिए कि उन्होंने अवज्ञा की और सीमोल्लंघन करते रहे। (112)
_______________________________
    ये सब एक जैसे नहीं हैं। किताबवालों में से कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सीधे मार्ग पर हैं और रात की घड़ियों में अल्लाह की आयतें पढ़ते हैं औरवे सजदा करते रहनेवाले हैं। (113)
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    वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं और नेकी का हुक्म देते और बुराई से रोकतेहैं और नेक कामों में अग्रसर रहते हैं, और वे अच्छे लोगों में से हैं। (114)
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    जो नेकी भी वे करेंगे, उसकीअवमानना न होगी। अल्लाह डर रखनेवालों से भली-भाँति परिचित है। (115)
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    रहे वे लोग जिन्होंने इनकार किया, तो अल्लाह के मुक़ाबले में न उनके माल कुछ काम आ सकेंगे और न उनकी सन्तान ही। वे तो आग में जानेवाले लोग हैं, उसी में वे सदैव रहेंगे। (116)
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    इस सांसारिक जीवन के लिए जो कुछ भी वे ख़र्च करते हैं, उसकी मिसाल उस वायु जैसी है जिसमें पाला हो और वह उन लोगों की खेती पर चल जाए, जिन्होंने अपने ऊपर अत्याचारकिया है और उसे विनष्ट करके रख दे। अल्लाह ने उन पर कोई अत्याचार नहीं किया, अपितु वेतो स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे हैं। (117)
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    ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनीभी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तोउनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए हैं, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो,तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं। (118)
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    ये तो तुम हो जो उनसे प्रेमकरते हो और वे तुमसे प्रेम नहीं करते, जबकि तुम समस्त किताबों पर ईमान रखते हो। और वे जब तुमसे मिलते हैं तो कहने को तो कहते हैं कि "हम ईमान लाए हैं।" किन्तु जब वे अलग होते हैं तो तुमपर क्रोध के मारे दाँतों से उँगलियाँ काटने लगते हैं। कह दो, "तुम अपने क्रोध में आप मरो। निस्संदेह अल्लाह दिलों के भेद को जानता है।" (119)
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    यदि तुम्हारा कोई भला होताहै तो उन्हें बुरा लगता है। परन्तु यदि तुम्हें कोई अप्रिय बात पेश आती है तो उससे वे प्रसन्न हो जाते हैं।यदि तुमने धैर्य से काम लिया और (अल्लाह का) डर रखा, तो उनकीकोई चाल तुम्हें कुछ भी नुक़सान नहीं पहुँचा सकती। जो कुछ वे कर रहे हैं, अल्लाह ने उसे अपने घेरे में ले रखा है। (120)
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    याद करो जब तुम सवेरे अपने घर से निकलकर ईमानवालों को युद्ध के मोर्चों पर लगा रहे थे। - अल्लाह तो सब कुछ सुनता, जानता है। (121)
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    जब तुम्हारे दो गरोहों ने साहस छोड़ देना चाहा, जबकि अल्लाह उनका संरक्षक मौजूद था - और ईमानवालों को तो अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए। (122)
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    और बद्र में अल्लाह तुम्हारी सहायता कर भी चुका था, जबकि तुम बहुत कमज़ोर हालत में थे। अतः अल्लाह ही का डर रखो, ताकि तुम कृतज्ञ बनो। (123)
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    जब तुम ईमानवालों से कह रहे थे, "क्या यह तुम्हारे लिएकाफ़ी नही है कि तुम्हारा रब तीन हज़ार फ़रिश्ते उतारकर तुम्हारी सहायता करे?" (124)
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     हाँ, क्यों नहीं। यदि तुम धैर्य से काम लो और डर रखो, फिर शत्रु सहसा तुमपर चढ़ आएँ, उसी क्षण तुम्हारा रब पाँच हज़ार विध्वंसकारी फ़रिश्तों से तुम्हारी सहायता करेगा। (125)
_______________________________
    अल्लाह ने तो इसे तुम्हारेलिए बस एक शुभ-सूचना बनाया और इसलिए कि तुम्हारे दिल सन्तुष्ट हो जाएँ - सहायता तो बस अल्लाह ही के यहाँ से आती है जो अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है। (126)
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    ताकि इनकार करनेवालों के एक हिस्से को काट डाले या उन्हें बुरी तरह पराजित और अपमानित कर दे कि वे असफल होकर लौटें। (127)
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    तुम्हें इस मामले में कोई अधिकार नहीं - चाहे वह उनकी तौबा क़बूल करे या उन्हें यातना दे, क्योंकि वे अत्याचारी हैं। (128)
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    आकाशों और धरती में जो कुछ भी है, अल्लाह ही का है। वह जिसे चाहे क्षमा कर दे और जिसे चाहे यातना दे। और अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है। (129)
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     ऐ ईमान लानेवालो! बढ़ोत्तरी के ध्येय से ब्याज न खाओ, जो कई गुना अधिक हो सकता है। और अल्लाह का डर रखो,ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो। (130)
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    और उस आग से बचो जो इनकार करनेवालों के लिए तैयार है। (131)
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   और अल्लाह और रसूल के आज्ञाकारी बनो, ताकि तुमपर दया की जाए। (132)
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    और अपने रब की क्षमा और उस जन्नत की ओर बढ़ो, जिसका विस्तार आकाशों और धरती जैसा है। वह उन लोगों के लिए तैयार है जो डर रखते हैं। (133)
_______________________________
   वे लोग जो ख़ुशहाली और तंगी की प्रत्येक अवस्था में ख़र्च करते रहते हैं और क्रोधको रोकते हैं और लोगों को क्षमा करते हैं - और अल्लाह कोभी ऐसे लोग प्रिय हैं, जो अच्छे से अच्छा कर्म करते हैं। (134)
_______________________________
    और जिनका हाल यह है कि जब वे कोई खुला गुनाह कर बैठते हैं या अपने आप पर ज़ुल्म करते हैं तो तत्काल अल्लाह उन्हें याद आ जाता है और वे अपने गुनाहों की क्षमा चाहने लगते हैं - और अल्लाह के अतिरिक्त कौन है, जो गुनाहों को क्षमा कर सके? और जानते-बूझते वे अपने किए पर अड़े नहीं रहते। (135)
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    उनका बदला उनके रब की ओर सेक्षमादान है और ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उनमें वे सदैव रहेंगे। और क्या ही अच्छा बदला है अच्छे कर्म करनेवालों का। (136)
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    तुमसे पहले (धर्मविरोधियों के साथ अल्लाह की) रीति के कितने ही नमूने गुज़र चुके हैं, तो तुम धरती में चल-फिरकर देखो कि झुठलानेवालों का क्या परिणामहुआ है। (137)
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     यह लोगों के लिए स्पष्ट बयान और डर रखनेवालों के लिए मार्गदर्शन और उपदेश है। (138)
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    हताश न हो और दुखी न हो, यदितुम ईमानवाले हो, तो तुम्हीं प्रभावी रहोगे। (139)
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     यदि तुम्हें आघात पहुँचे तो उन लोगों को भी ऐसा ही आघातपहुँच चुका है। ये युद्ध के दिन हैं, जिन्हें हम लोगों के बीच डालते ही रहते हैं और ऐसा इसलिए हुआ कि अल्लाह ईमानवालों को जान ले और तुममें से कुछ लोगों को गवाह बनाए - और अत्याचारी अल्लाह को प्रिय नहीं हैं। (140)
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    और ताकि अल्लाह ईमानवालों को निखार दे और इनकार करनेवालों को मिटा दे। (141)
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   क्या तुमने यह समझ रखा है कि जन्नत में यूँ ही प्रवेश करोगे, जबकि अल्लाह ने अभी उन्हें परखा ही नहीं जो तुममें जिहाद (सत्य-मार्ग मेंजानतोड़ कोशिश) करनेवाले हैं। - और दृढ़तापूर्वक जमे रहनेवाले हैं।(142)
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     और तुम तो मृत्यु की कामनाएँ कर रहे थे, जब तक कि वह तुम्हारे सामने नहीं आई थी। लो, अब तो वह तुम्हारे सामने आ गई और तुमने उसे अपनी आँखों से देख लिया। (143)
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    मुहम्मद तो बस एक रसूल हैं। उनसे पहले भी रसूल गुज़रचुके हैं। तो क्या यदि उनकी मृत्यु हो जाए या उनकी हत्या कर दी जाए तो तुम उल्टे पाँव फिर जाओगे? जो कोई उल्टे पाँव फिरेगा, वह अल्लाह का कुछ नहीं बिगाड़ेगा। और कृतज्ञ लोगों को अल्लाह बदला देगा। (144)
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    और अल्लाह की अनुज्ञा के बिना कोई व्यक्ति मर नहीं सकता। हर व्यक्ति एक लिखित निश्चित समय का अनुपालन कर रहा है। और जो कोई दुनिया का बदला चाहेगा, उसे हम इस दुनिया में से देंगे, जो आख़िरत का बदला चाहेगा, उसे हम उसमें से देंगे और जो कृतज्ञता दिखलाएँगे, उन्हें तो हम बदला देंगे ही। (145)
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    कितने ही नबी ऐसे गुज़रे हैं जिनके साथ होकर बहुत-से ईशभक्तों ने युद्ध किया, तो अल्लाह के मार्ग में जो मुसीबत उन्हें पहुँची उससे वे न तो हताश हुए और न उन्होंने कोई कमज़ोरी दिखाई और न ऐसा हुआ कि वे दबे हों। और अल्लाह दृढ़तापूर्वक जमे रहनेवालों से प्रेम करता है। (146)
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    उन्होंने कुछ नहीं कहा सिवाय इसके कि "ऐ हमारे रब! तू हमारे गुनाहों को और हमारे अपने मामले में जो ज़्यादती हमसे हो गई हो, उसे क्षमा कर दे और हमारे क़दम जमाए रख, और इनकार करनेवाले लोगों के मुक़ाबले में हमारी सहायता कर।" (147)
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   अतः अल्लाह ने उन्हें दुनिया का भी बदला दिया और आख़िरत का अच्छा बदला भी। और सत्कर्मी लोगों से अल्लाह प्रेम करता है। (148)
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    ऐ ईमान लानेवालो! यदि तुम उन लोगों के कहने पर चलोगे जिन्होंने इनकार का मार्ग अपनाया है, तो वे तुम्हें उल्टे पाँव फेर ले जाएँगे। फिर तुम घाटे में पड़ जाओगे। (149)
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   बल्कि अल्लाह ही तुम्हारा संरक्षक है; और वह सबसे अच्छा सहायक है। (150)
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   हम शीघ्र ही इनकार करनेवालों के दिलों में धाक बिठा देंगे, इसलिए कि उन्होंने ऐसी चीज़ों को अल्लाह का साक्षी ठहराया है जिनके साथ उसने कोई सनद नहीं उतारी, और उनका ठिकाना आग (जहन्नम) है। और अत्याचारियोंका क्या ही बुरा ठिकाना है। (151)
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    और अल्लाह ने तो तुम्हें अपना वादा सच्चा कर दिखाया, जबकि तुम उसकी अनुज्ञा से उन्हें क़त्ल कर रहे थे। यहाँतक कि जब तुम स्वयं ढीले पड़ गए और काम में झगड़ा डाल दिया और अवज्ञा की, जबकि अल्लाह ने तुम्हें वह चीज़ दिखा दी थी जिसकी तुम्हें चाह थी। तुममें कुछ लोग दुनिया चाहते थे और कुछ आख़िरत के इच्छुक थे। फिर अल्लाह ने तुम्हें उनके मुक़ाबले से हटा दिया, ताकि वह तुम्हारी परीक्षा ले। फिर भी उसने तुम्हें क्षमा कर दिया, क्योंकि अल्लाह ईमानवालों के लिए बड़ा अनुग्राही है। (152)
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     जब तुम लोग दूर भागे चले जारहे थे और किसी को मुड़कर देखते तक न थे और रसूल तुम्हें पुकार रहा था, जबकि वह तुम्हारी दूसरी टुकड़ी के साथ था (जो भागी नहीं), तो अल्लाह ने तुम्हें शोक पर शोकदिया, ताकि तुम्हारे हाथ से कोई चीज़ निकल जाए या तुमपर कोई मुसीबत आए तो तुम शोकाकुलन हो। और जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह उसकी भली-भाँति ख़बर रखता है। (153)
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    फिर इस शोक के पश्चात उसने तुमपर एक शान्ति उतारी - एक निद्रा, जो तुममें से कुछ लोगों को घेर रही थी और कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें अपने प्राणों की चिन्ता थी। वे अल्लाह के विषय में ऐसा ख़यालकर रहे थे, जो सत्य के सर्वथा प्रतिकूल, अज्ञान (काल) का ख़याल था। वे कहते थे, "इन मामलों में क्या हमारा भी कुछअधिकार है?" कह दो, "मामले तो सबके सब अल्लाह के (हाथ में) हैं।" वे जो कुछ अपने दिलों में छिपाए रखते हैं, तुमपर ज़ाहिर नहीं करते। कहते हैं,"यदि इस मामले में हमारा भी कुछ अधिकार होता तो हम यहाँ मारे न जाते।" कह दो, "यदि तुम अपने घरों में भी होते, तो भी जिन लोगों का क़त्ल होना तय था, वे निकलकर अपने अन्तिम शयन-स्थलों तक पहुँचकर रहते।" और यह इसलिए भी था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में है, अल्लाह उसे परख ले और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है उसे साफ़ कर दे। और अल्लाह दिलों का हाल भली-भाँति जानताहै। (154)
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    तुममें से जो लोग दोनों गरोहों की मुठभेड़ के दिन पीठदिखा गए, उन्हें तो शैतान ही ने उनकी कुछ कमाई (कर्म) के कारण विचलित कर दिया था। और अल्लाह तो उन्हें क्षमा कर चुका है। निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमा करनेवाला, सहनशील है। (155)
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    ऐ ईमान लानेवालो! उन लोगों की तरह न हो जाना जिन्होंने इनकार किया और अपने भाइयों केविषय में, जबकि वे सफ़र में गएहों या युद्ध में हों (और उनकीवहाँ मृत्यु हो जाए तो) कहते हैं, "यदि वे हमारे पास होते तो न मरते और न क़त्ल होते।" (ऐसी बातें तो इसलिए होती हैं)ताकि अल्लाह उनको उनके दिलों में घर करनेवाला पछतावा और सन्ताप बना दे। अल्लाह ही जीवन प्रदान करने और मृत्यु देनेवाला है। और तुम जो कुछ भी कर रहे हो वह अल्लाह की नज़रमें है। (156)
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    और यदि तुम अल्लाह के मार्ग में मारे गए या मर गए, तो अल्लाह का क्षमादान और उसकी दयालुता तो उससे कहीं उत्तम है, जिसके बटोरने में वे लगे हुए हैं। (157)
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    हाँ, यदि तुम मर गए या मारे गए, तो प्रत्येक दशा में तुम अल्लाह ही के पास इकट्ठा किए जाओगे। (158)
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    (तुमने तो अपनी दयालुता से उन्हें क्षमा कर दिया) तो अल्लाह की ओर से ही बड़ी दयालुता है जिसके कारण तुम उनके लिए नर्म रहे हो, यदि कहीं तुम स्वभाव के क्रूर और कठोर हृदय होते तो ये सब तुम्हारे पास से छँट जाते। अतः उन्हें क्षमा कर दो और उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करो। और मामलों में उनसे परामर्श कर लिया करो। फिर जब तुम्हारे संकल्प किसी सम्मतिपर सुदृढ़ हो जाएँ तो अल्लाह पर भरोसा करो। निस्संदेह अल्लाह को वे लोग प्रिय हैं जो उसपर भरोसा करते हैं। (159)
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  यदि अल्लाह तुम्हारी सहायता करे, तो कोई तुमपर प्रभावी नहीं हो सकता। और यदिवह तुम्हें छोड़ दे, तो फिर कौन हो जो उसके पश्चात तुम्हारी सहायता कर सके। अतः ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए। (160)
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    यह किसी नबी के लिए सम्भव नहीं कि वह दिल में कीना-कपट रखे, और जो कोई कीना-कपट रखेगातो वह क़ियामत के दिन अपने द्वेष समेत हाज़िर होगा। और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी कमाई का पूरा-पूरा बदला दे दिया जाएगा और उनपर कुछ भी ज़ुल्म न होगा। (161)
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    भला क्या जो व्यक्ति अल्लाह की इच्छा पर चले वह उस जैसा हो सकता है जो अल्लाह के प्रकोप का भागी हो चुका हो और जिसका ठिकाना जहन्नम है? और वह क्या ही बुरा ठिकाना है। (162)
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     अल्लाह के यहाँ उनके विभिन्न दर्जे हैं और जो कुछ वे कर रहे हैं, अल्लाह की नज़र में है। (163)
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    निस्संदेह अल्लाह ने ईमानवालों पर बड़ा उपकार किया, जबकि स्वयं उन्हीं में से एक ऐसा रसूल उठाया जो उन्हें उसकी आयतें सुनाता है और उन्हें निखारता है, और उन्हें किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देताहै, अन्यथा इससे पहले वे लोग खुली गुमराही में पड़े हुए थे। (164)
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    यह क्या कि जब तुम्हें एक मुसीबत पहुँची, जिसकी दोगुनी तुमने पहुँचाई, तो तुम कहने लगे कि, "यह कहाँ से आ गई?" कह दो, "यह तो तुम्हारी अपनी ओर से है, अल्लाह को तो हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।" (165)
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    और दोनों गरोहों की मुठभेड़ के दिन जो कुछ तुम्हारे सामने आया वह अल्लाह ही की अनुज्ञा से आया और इसलिए कि वह जान ले कि ईमानवाले कौन हैं।(166)
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    और इसलिए कि वह कपटाचारियों को भी जान ले जिनसे कहा गया कि "आओ, अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो या दुश्मनों को हटाओ।" उन्होंने कहा, "यदि हम जानते कि लड़ाई होगी तो हम अवश्य तुम्हारे साथ हो लेते।" उस दिन वे ईमान की अपेक्षा अधर्म के अधिक निकट थे। वे अपने मुँह से वे बातें कहते हैं, जो उनके दिलों में नहीं होती। और जो कुछ वे छिपाते हैं, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है। (167)
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  ये वही लोग हैं जो स्वयं तोबैठे रहे और अपने भाइयों के विषय में कहने लगे, "यदि वे हमारी बात मान लेते तो मारे न जाते।" कह दो, "अच्छा, यदि तुम सच्चे हो, तो अब तुम अपने ऊपर से मृत्यु को टाल देना।" (168)
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   तुम उन लोगों को जो अल्लाह के मार्ग में मारे गए हैं, मुर्दा न समझो, बल्कि वे अपने रब के पास जीवित हैं, रोज़ी पारहे हैं। (169)
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    अल्लाह ने अपनी उदार कृपा से जो कुछ उन्हें प्रदान कियाहै, वे उसपर बहुत प्रसन्न हैं और उन लोगों के लिए भी ख़ुश होरहे हैं जो उनके पीछे रह गए हैं, अभी उनसे मिले नहीं हैं कि उन्हें भी न कोई भय होगा औरन वे दुखी होंगे। (170)
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    वे अल्लाह के अनुग्रह और उसकी उदार कृपा से प्रसन्न होरहे हैं और इससे कि अल्लाह ईमानवालों का बदला नष्ट नहीं करता। (171)
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    जिन लोगों ने अल्लाह और रसूल की पुकार को स्वीकार किया, इसके पश्चात कि उन्हें आघात पहुँच चुका था। इन सत्कर्मी और (अल्लाह का) डर रखनेवालों के लिए बड़ा प्रतिदान है। (172)
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     ये वही लोग हैं जिनसे लोगों ने कहा, "तुम्हारे विरुद्ध लोग इकट्ठा हो गए हैं, अतः उनसे डरो।" तो इस चीज़ ने उनके ईमान को और बढ़ा दिया। और उन्होंने कहा,"हमारे लिए तो बस अल्लाह काफ़ीहै और वही सबसे अच्छा कार्य-साधक है।" (173)
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    तो वे अल्लाह की ओर से प्राप्त होनेवाली नेमत और उदार कृपा के साथ लौटे। उन्हें कोई तकलीफ़ छू भी नहींसकी और वे अल्लाह की इच्छा पर चले भी, और अल्लाह बड़ी ही उदार कृपावाला है।(174)
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    वह तो शैतान है जो अपने मित्रों को डराता है। अतः तुमउनसे न डरो, बल्कि मुझी से डरो, यदि तुम ईमानवाले हो। (175)
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    जो लोग अधर्म और इनकार में जल्दी दिखाते हैं, उनके कारण तुम दुखी न हो। वे अल्लाह का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। अल्लाह चाहता है कि उनके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा न रखे, उनके लिए तो बड़ी यातना है। (176)
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    जो लोग ईमान की क़ीमत पर इनकार और अधर्म के ग्राहक हुए, वे अल्लाह का कुछ भी नहींबिगाड़ सकते, उनके लिए तो दुखद यातना है। (177)
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    और यह ढील जो हम उन्हें दिएजाते हैं, इसे अधर्मी लोग अपने लिए अच्छा न समझें। यह ढील तो हम उन्हें सिर्फ़ इसलिए दे रहे हैं कि वे गुनाहों में और अधिक बढ़ जाएँ, और उनके लिए तो अत्यन्त अपमानजनक यातना है। (178)
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     अल्लाह ईमानवालों को इस दशा में नहीं रहने देगा, जिसमें तुम हो। यह तो उस समय तक की बात है जब तक कि वह अपवित्र को पवित्र से पृथक नहीं कर देता। और अल्लाह ऐसा नहीं है कि वह तुम्हें परोक्षकी सूचना दे दे। किन्तु अल्लाह इस काम के लिए जिसको चाहता है चुन लेता है, और वे उसके रसूल होते हैं। अतः अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ। और यदि तुम ईमान लाओगे और (अल्लाह का) डर रखोगे तो तुमको बड़ा प्रतिदान मिलेगा।(179)
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     जो लोग उस चीज़ में कृपणता से काम लेते हैं, जो अल्लाह नेअपनी उदार कृपा से उन्हें प्रदान की है, वे यह न समझें कि यह उनके हित में अच्छा है, बल्कि यह उनके लिए बुरा है। जिस चीज़ में उन्होंने कृपणता से काम लिया होगा, वही आगे क़ियामत के दिन उनके गले का तौक़ बन जाएगा। और ये आकाश और धरती अंत में अल्लाह ही के लिए रह जाएँगे। तुम जो कुछ भी करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है। (180)
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   अल्लाह उन लोगों की बात सुनचुका है जिनका कहना है कि"अल्लाह तो निर्धन है और हम धनवान हैं।" उनकी बात हम लिख लेंगे और नबियों को जो वे नाहक क़त्ल करते रहे हैं उसे भी। और हम कहेंगे, "लो, (अब) जलने की यातना का मज़ा चखो।" (181)
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    यह उसका बदला है जो तुम्हारे हाथों ने आगे भेजा। अल्लाह अपने बन्दों पर तनिक भी ज़ुल्म नहीं करता। (182)
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    ये वही लोग हैं जिनका कहना है कि "अल्लाह ने हमें ताकीद की है कि हम किसी रसूल पर ईमानन लाएँ, जब तक कि वह हमारे सामने ऐसी क़ुरबानी न पेश करेजिसे आग खा जाए।" कहो,"तुम्हारे पास मुझसे पहले कितने ही रसूल खुली निशानियाँ लेकर आ चुके हैं, और वे वह चीज़ भी लाए थे जिसकेलिए तुम कह रहे हो। फिर यदि तुम सच्चे हो तो तुमने उन्हेंक़त्ल क्यों किया?" (183)
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    फिर यदि वे तुम्हें झुठलाते ही रहें, तो तुमसे पहले भी कितने ही रसूल झुठलाएजा चुके हैं, जो खुली निशानियाँ, 'ज़बूरें' और प्रकाशमान किताब लेकर आए थे। (184)
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     प्रत्येक जीव मृत्यु का मज़ा चखनेवाला है, और तुम्हेंतो क़ियामत के दिन पूरा-पूरा बदला दे दिया जाएगा। अतः जिसेआग (जहन्नम) से हटाकर जन्नत में दाख़िल कर दिया गया, वह सफल रहा। रहा सांसारिक जीवन, तो वह माया-सामग्री के सिवा कुछ भी नहीं। (185)
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    तुम्हारे माल और तुम्हारे प्राण में तुम्हारी परीक्षा होकर रहेगी और तुम्हें उन लोगों से जिन्हें तुमसे पहले किताब प्रदान की गई थी और उन लोगों से जिन्होंने 'शिर्क' किया, बहुत-सी कष्टप्रद बातेंसुननी पड़ेंगी। परन्तु यदि तुम जमे रहे और (अल्लाह का) डर रखा, तो यह उन कर्मों में से है जो आवश्यक ठहरा दिया गया है। (186)
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    याद करो जब अल्लाह ने उन लोगों से, जिन्हें किताब प्रदान की गई थी, वचन लिया था कि "उसे लोगों के सामने भली-भाँति स्पष्ट करोगे, उसे छिपाओगे नहीं।" किन्तु उन्होंने उसे पीठ पीछे डाल दिया और तुच्छ मूल्य पर उसका सौदा किया। कितना बुरा सौदा है जो ये कर रहे हैं। (187)
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   तुम उन्हें कदापि यह न समझना, जो अपने किए पर ख़ुश होरहे हैं और जो काम उन्होंने नहीं किए, चाहते हैं कि उनपर भी उनकी प्रशंसा की जाए - तो तुम उन्हें यह न समझना कि वे यातना से बच जाएँगे, उनके लिए तो दुखद यातना है। (188)
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    आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह ही का है, और अल्लाह कोहर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है। (189)
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    निस्सन्देह आकाशों और धरतीकी रचना में और रात और दिन के आगे-पीछे बारी-बारी आने में उन बुद्धिमानों के लिए निशानियाँ हैं,(190)
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    जो खड़े, बैठे और अपने पहलुओं पर लेटे अल्लाह को यादकरते हैं और आकाशों और धरती की रचना में सोच-विचार करते हैं। (वे पुकार उठते हैं,)"हमारे रब! तूने यह सब व्यर्थ नहीं बनाया है। महान है तू, अतः तू हमें आग की यातना से बचा ले।(191)
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    हमारे रब, तूने जिसे आग मेंडाला, उसे रुसवा कर दिया। और ऐसे ज़ालिमों का कोई सहायक न होगा। (192)
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    "हमारे रब! हमने एक पुकारनेवाले को ईमान की ओर बुलाते सुना कि अपने रब पर ईमान लाओ। तो हम ईमान ले आए। हमारे रब! तो अब तू हमारे गुनाहों को क्षमा कर दे और हमारी बुराइयों को हमसे दूर कर दे और हमें नेक और वफ़़ादार लोगों के साथ (दुनिया से) उठा। (193)
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    "हमारे रब! जिस चीज़ का वादा तूने अपने रसूलों के द्वारा किया वह हमें प्रदान कर और क़ियामत के दिन हमें रुसवा न करना। निस्संदेह तू अपने वादे के विरुद्ध जानेवाला नहीं है।" (194)
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     तो उनके रब ने उनकी पुकार सुन ली कि "मैं तुममें से किसीकर्म करनेवाले के कर्म को अकारथ नहीं करूँगा, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। तुम सब आपस में एक-दूसरे से हो। अतः जिन लोगों ने (अल्लाह के मार्ग में) घरबार छोड़ा और अपने घरों से निकाले गए और मेरे मार्ग में सताए गए, और लड़े और मारे गए, मैं उनसे उनकी बुराइयाँ दूर कर दूँगा और उन्हें ऐसे बाग़ों में प्रवेश कराऊँगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी।" यह अल्लाह के पास से उनका बदला होगा और सबसे अच्छा बदला अल्लाह ही के पास है। (195)
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     बस्तियों में इनकार करनेवालों की चलत-फिरत तुम्हें किसी धोखे में न डाले। (196)
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    यह तो थोड़ी सुख-सामग्री है फिर तो उनका ठिकाना जहन्नमहै, और वह बहुत ही बुरा ठिकानाहै। (197)
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    किन्तु जो लोग अपने रब से डरते रहे उनके लिए ऐसे बाग़ होंगे जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। वे उसमें सदैव रहेंगे। यह अल्लाह की ओर से पहला आतिथ्य-सत्कार होगा और जो कुछ अल्लाह के पास है वह नेक और वफ़ादार लोगों के लिए सबसे अच्छा है। (198)
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    और किताबवालों में से कुछ ऐसे भी हैं, जो इस हाल में कि उनके दिल अल्लाह के आगे झुके हुए होते हैं, अल्लाह पर ईमान रखते हैं और उस चीज़ पर भी जो तुम्हारी ओर उतारी गई है, और उस चीज़ पर भी जो स्वयं उनकी ओर उतरी। वे अल्लाह की आयतों का 'तुच्छ मूल्य पर सौदा' नहीं करते, उनके लिए उनके रब के पासउनका प्रतिदान है। अल्लाह हिसाब भी जल्द ही कर देगा। (199)
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     ऐ ईमान लानेवालो! धैर्य से काम लो और (मुक़ाबले में) बढ़-चढ़कर धैर्य दिखाओ और जुटे और डटे रहो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम सफल हो सको। (200)
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