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2.1 अल-बक़रा    [ कुल आयतें - 286 ]

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सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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●═══════════════════✒
    अलिफ़॰ लाम॰ मीम॰ (1)
_______________________________
   वह किताब यही है, (जिसका वादा किया गया था) जिसमें कोई सन्देह नहीं, मार्गदर्शन है डर रखनेवालों के लिए,(2)
_______________________________
   जो अनदेखे ईमान लाते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं;(3)
_______________________________
  और जो उस पर ईमान लाते हैं जो तुम पर उतरा और जो तुमसे पहले अवतरित हुआ है और आख़िरतपर वही लोग विश्वास रखते हैं;(4)
_______________________________
   वही लोग हैं जो अपने रब के सीधे मार्ग पर हैं और वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं । (5)
_______________________________
    जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया उनके लिए बराबर रहा, चाहे तुमने उन्हें सचेत किया हो या सचेत न किया हो, वे ईमान नहीं ला रहे हैं । (6)
_______________________________
    अल्लाह ने उनके दिलों पर और कानों पर मुहर लगा दी है औरउनकी आँखों पर परदा पड़ा है, और उनके लिए बड़ी यातना है।(7)
_______________________________
  कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह और अन्तिम दिन (आख़िरत) पर ईमान रखते हैं, हालाँकि वे ईमान नहीं रखते। (8)
_______________________________
    वे अल्लाह और ईमानवालों केसाथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं, हालाँकि धोखा वे स्वयं अपने-आपको ही दे रहे हैं, परन्तु वे इसको महसूस नहीं करते। (9)
_______________________________
    उनके दिलों में रोग था तो अल्लाह ने उनके रोग को और बढ़ा दिया और उनके झूठ बोलते रहने के कारण उनके लिए एक दुखद यातना है। (10)
_______________________________
    और जब उनसे कहा जाता है कि"ज़मीन में बिगाड़ पैदा न करो", तो कहते हैं, "हम तो केवलसुधारक हैं।" (11)
_______________________________
    जान लो! वही हैं जो बिगाड़ पैदा करते हैं, परन्तु उन्हेंएहसास नहीं होता। (12)
_______________________________
    और जब उनसे कहा जाता है,"ईमान लाओ जैसे लोग ईमान लाए हैं", कहते हैं, "क्या हम ईमान लाएँ जैसे कम समझ लोग ईमान लाए हैं?" जान लो, वही कम समझ हैं परन्तु जानते नहीं। (13)
_______________________________
    और जब ईमान लानेवालों से मिलते हैं तो कहते हैं, "हम भी ईमान लाए हैं," और जब एकान्त में अपने शैतानों के पास पहुँचते हैं, तो कहते हैं, "हम तो तुम्हारे साथ हैं और यह तो हम केवल परिहास कर रहे हैं।" (14)
_______________________________
    अल्लाह उनके साथ परिहास कररहा है और उन्हें उनकी सरकशी में ढील दिए जाता है, वे भटकतेफिर रहे हैं। (15)
_______________________________
    यही वे लोग हैं, जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले में गुमराही मोल ली, किन्तु उनके इस व्यापार ने न कोई लाभ पहुँचाया, और न ही वे सीधा मार्ग पा सके। (16)
_______________________________
    उनकी मिसाल ऐसी है जैसे किसी व्यक्ति ने आग जलाई, फिर जब उसने वातावरण को प्रकाशित कर दिया, तो अल्लाह ने उनका प्रकाश ही छीन लिया और उन्हेंअँधेरों में छोड़ दिया जिससे उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहाहै। (17)
_______________________________
    वे बहरे हैं, गूँगे हैं, अन्धे हैं, अब वे लौटने के नहीं। (18)
_______________________________
    या (उनकी मिसाल ऐसी है) जैसे आकाश से वर्षा हो रही हो जिसके साथ अँधेरे हों और गरज और चमक भी हो, वे बिजली की कड़क के कारण मृत्यु के भय से अपने कानों में उँगलियाँ दे ले रहे हों - और अल्लाह ने तो इनकार करनेवालों को घेर रखा है।(19)
_______________________________
    मानो शीघ्र ही बिजली उनकी आँखों की रौशनी उचक लेने को है; जब भी वह उन पर चमक जाती हो, उसमें वे चल पड़ते हों और जब उनपर अँधेरा छा जाता हो तो खड़े हो जाते हों; अगर अल्लाह चाहता तो उनकी सुनने और देखनेकी शक्ति बिलकुल ही छीन लेता।निस्सन्देह, अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है। (20)
_______________________________
    ऐ लोगो! बन्दगी करो अपने रबकी जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम बच सको। (21)
_______________________________
   वही है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन को फ़र्श और आकाश को छत बनाया, और आकाश से पानी उतारा,फिर उसके द्वारा हर प्रकार कीपैदावार और फल तुम्हारी रोज़ी के लिए पैदा किए, अतः जब तुम जानते हो तो अल्लाह के समकक्षन ठहराओ।(22)
_______________________________
    और अगर उसके विषय में, जो हमने अपने बन्दे पर उतारा है, तुम किसी सन्देह में हो तो उस जैसी कोई सूरा ले आओ और अल्लाह से हटकर अपने सहायकों को बुला लो, जिनके आ मौजूद होने पर तुम्हें विश्वास है, यदि तुम सच्चे हो। (23)
_______________________________
    फिर अगर तुम ऐसा न कर सको और तुम कदापि नहीं कर सकते, तोडरो उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर हैं, जो इनकार करनेवालों के लिए तैयार की गईहै। (24)
_______________________________
    जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए उन्हें शुभ सूचना दे दो कि उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रहीं होंगी; जब भी उनमें से कोई फल उन्हें रोज़ी के रूप में मिलेगा, तो कहेंगे, "यह तो वही है जो पहले हमें मिला था," और उन्हें मिलता-जुलता ही (फल) मिलेगा; उनके लिए वहाँ पाक-साफ़ जोड़े होंगे, और वे वहाँ सदैव रहेंगे। (25)
_______________________________
    निस्संदेह अल्लाह नहीं शरमाता कि वह कोई मिसाल पेश करे चाहे वह हो मच्छर की, बल्कि उससे भी बढ़कर किसी तुच्छ चीज़ की। फिर जो ईमान लाए हैं वे तो जानते हैं कि वहउनके रब की ओर से सत्य है; रहे इनकार करनेवाले तो वे कहते हैं, "इस मिसाल से अल्लाह का अभिप्राय क्या है?" इससे वह बहुतों को भटकने देता है और बहुतों को सीधा मार्ग दिखा देता है, मगर इससे वह केवल अवज्ञाकारियों ही को भटकने देता है। (26)
_______________________________
    जो अल्लाह की प्रतिज्ञा कोउसे सुदृढ़ करने के पश्चात भंग कर देते हैं और जिसे अल्लाह ने जोड़ने का आदेश दिया है उसे काट डालते हैं, औरज़मीन में बिगाड़ पैदा करते हैं, वही हैं जो घाटे में हैं।(27)
_______________________________
    तुम अल्लाह के साथ अविश्वास की नीति कैसे अपनाते हो, जबकि तुम निर्जीव थे तो उसने तुम्हें जीवित किया, फिर वही तुम्हें मौत देता है, फिर वही तुम्हें जीवित करेगा, फिर उसी की ओर तुम्हें लौटना है? (28)
_______________________________
    वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन की सारी चीज़ें पैदाकीं, फिर आकाश की ओर रुख़ कियाऔर ठीक तौर पर सात आकाश बनाए और वह हर चीज़ को जानता है। (29)
_______________________________
    और याद करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि "मैं धरती में (मनुष्य को) ख़लीफ़ा (सत्ताधारी) बनानेवाला हूँ।" उन्होंने कहा, "क्या उसमें उसको रखेगा, जो उसमें बिगाड़ पैदा करे और रक्तपात करे और हम तेरा गुणगान करते और तुझे पवित्र कहते हैं?" उसने कहा,"मैं जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।" (30)
_______________________________
    उसने (अल्लाह ने) आदम को सारे नाम सिखाए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, "अगर तुम सच्चे हो तो मुझे इनके नाम बताओ।" (31)
_______________________________
    वे बोले, "पाक और महिमावान है तू! तूने जो कुछ हमें बतायाउसके सिवा हमें कोई ज्ञान नहीं। निस्संदेह तू सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है।" (32)
_______________________________
    उसने (अल्लाह ने) कहा, "ऐ आदम! उन्हें उन लोगों के नाम बताओ।" फिर जब उसने उन्हें उनके नाम बता दिए तो (अल्लाह ने) कहा, "क्या मैंने तुमसे कहा न था कि मैं आकाशों और धरती की छिपी बातों को जानता हूँ और मैं जानता हूँ जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो और जो कुछ छिपाते हो।" (33)
_______________________________
    और याद करो जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि "आदम को सजदा करो" तो, उन्होंने सजदा किया सिवाय इबलीस के; उसने इनकार कर दिया और लगा बड़ा बनने और काफ़िर हो रहा। (34)
_______________________________
    और हमने कहा, "ऐ आदम! तुम औरतुम्हारी पत्नी जन्नत में रहो और वहाँ जी भर बेरोक-टोक जहाँ से तुम दोनों का जी चाहे खाओ, लेकिन इस वृक्ष के पास न जाना, अन्यथा तुम ज़ालिम ठहरोगे।" (35)
_______________________________
    अन्ततः शैतान ने उन्हें वहाँ से फिसला दिया, फिर उन दोनों को वहाँ से निकलवाकर छोड़ा, जहाँ वे थे। हमने कहा कि "उतरो, तुम एक-दूसरे के शत्रु होगे और तुम्हें एक समयतक धरती में ठहरना और बिलसना है।" (36)
_______________________________
    फिर आदम ने अपने रब से कुछ शब्द पा लिए, तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़बूल कर ली; निस्संदेह वही तौबा क़बूल करने वाला, अत्यन्त दयावान है। (37)
_______________________________
   हमने कहा, "तुम सब यहाँ से उतरो, फिर यदि तुम्हारे पास मेरी ओर से कोई मार्गदर्शन पहुँचे तो जिस किसी ने मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण किया, तो ऐसे लोगों को न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे।" (38)
_______________________________
    और जिन लोगों ने इनकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही आग में पड़नेवाले हैं, वे उसमें सदैवरहेंगे। (39)
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   ऐ इसराईल की सन्तान! याद करो मेरे उस अनुग्रह को जो मैंने तुमपर किया था। और मेरीप्रतिज्ञा को पूरा करो, मैं तुमसे की हुई प्रतिज्ञा को पूरा करूँगा, और हाँ, मुझी से डरो। (40)
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    और ईमान लाओ उस चीज़ पर जो मैंने उतारी है, जो उसकी पुष्टि में है, जो तुम्हारे पास है, और सबसे पहले तुम ही उसके इनकार करनेवाले न बनो। और मेरी आयतों को थोड़ा मूल्यप्राप्त करने का साधन न बनाओ, मुझसे ही तुम डरो। (41)
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    और सत्य में असत्य का घाल-मेल न करो और जानते-बूझते सत्य को मत छिपाओ । (42)
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   और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और (मेरे समक्ष) झुकनेवालों के साथ झुको (43)
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    क्या तुम लोगों को तो नेकी और एहसान का उपदेश देते हो और अपने आपको भूल जाते हो, हालाँकि तुम किताब भी पढ़ते हो? फिर क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते? (44)
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   धैर्य और नमाज़ से मदद लो, और निस्संदेह यह (नमाज़) बहुत कठिन है, किन्तु उन लोगों के लिए नहीं जो विनम्र होते हैं;(45)
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    जो समझते हैं कि उन्हें अपने रब से मिलना है और उसी कीओर उन्हें पलटकर जाना है। (46)
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  ऐ इसराईल की सन्तान! याद करो मेरे उस अनुग्रह को जो मैंने तुमपर किया था और इसे भी कि मैंने तुम्हें सारे संसार पर श्रेष्ठता प्रदान की थी; (47)
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    और डरो उस दिन से जब न कोई किसी की ओर से कुछ तावान भरेगा और न किसी की ओर से कोई सिफ़ारिश ही क़बूल की जाएगी और न किसी की ओर से कोई फ़िद्या (अर्थदंड) लिया जाएगाऔर न वे सहायता ही पा सकेंगे। (48)
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    और याद करो जब हमने तुम्हें फ़िरऔनियों से छुटकारा दिलाया, जो तुम्हें अत्यन्त बुरी यातना देते थे, तुम्हारे बेटों को मार डालते थे और तुम्हारी स्त्रियों को जीवित रहने देते थे; और इसमें तुम्हारे रब की ओर से बड़ा अनुग्रह था। (49)
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    याद करो जब हमने तुम्हें सागर में अलग-अलग चौड़े रास्ते से ले जाकर छुटकारा दिया और फ़िरऔनियों को तुम्हारी आँखों के सामने डूबो दिया। (50)
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    और याद करो जब हमने मूसा सेचालीस रातों का वादा ठहराया तो उसके पीछे तुम बछड़े को अपना देवता बना बैठे, तुम अत्याचारी थे। (51)
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    फिर इसके पश्चात भी हमने तुम्हें क्षमा किया, ताकि तुमकृतज्ञता दिखलाओ। (52)
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   और याद करो जब मूसा को हमनेकिताब और कसौटी प्रदान की, ताकि तुम मार्ग पा सको। (53)
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   और जब मूसा ने अपनी क़ौम सेकहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! बछड़े को देवता बनाकर तुमने अपने ऊपर ज़ुल्म किया है, तो तुम अपने पैदा करनेवाले की ओरपलटो, अतः अपने लोगों को स्वयं क़त्ल करो। यही तुम्हारे पैदा करनेवाले की द्रष्टि में तुम्हारे लिए अच्छा है, फिर उसने तुम्हारी तौबा क़बूल कर ली। निस्संदेह वह बड़ा तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान है।" (54)
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    और याद करो जब तुमने कहा था, "ऐ मूसा, हम तुमपर ईमान नहीं लाएँगे जब तक अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला न देख लें।" फिर एक कड़क ने तुम्हें आ दबोचा और तुम देखते रहे। (55)
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    फिर तुम्हारे निर्जीव हो जाने के पश्चात हमने तुम्हें जिला उठाया, ताकि तुम कृतज्ञता दिखलाओ। (56)
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   और हमने तुमपर बादलों की छाया की और तुमपर 'मन्न' और 'सलवा' उतारा - "खाओ, जो अच्छी पाक चीज़ें हमने तुम्हें प्रदान की हैं।" उन्होंने हमारा तो कुछ भी नहीं बिगाड़ा, बल्कि वे अपने ही ऊपर अत्याचार करते रहे। (57)
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    और जब हमने कहा था, "इस बस्ती में प्रवेश करो, फिर उसमें से जहाँ से चाहो जी भर खाओ, और बस्ती के द्वार में सजदागुज़ार बनकर प्रवेश करो और कहो, "छूट है।" हम तुम्हारीख़ताओं को क्षमा कर देंगे और अच्छे से अच्छा काम करनेवालों पर हम और अधिक अनुग्रह करेंगे।" (58)
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    फिर जो बात उनसे कही गई थी ज़ालिमों ने उसे दूसरी बात सेबदल दिया। अन्ततः ज़ालिमों पर हमने, जो अवज्ञा वे कर रहे थे उसके कारण, आकाश से यातना उतारी। (59)
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    और याद करो जब मूसा ने अपनीक़ौम के लिए पानी की प्रार्थना की तो हमने कहा,"चट्टान पर अपनी लाठी मारो," तो उससे बारह स्रोत फूट निकलेऔर हर गरोह ने अपना-अपना घाट जान लिया - "खाओ और पियो अल्लाह का दिया और धरती में बिगाड़ फैलाते न फिरो।" (60)
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   और याद करो जब तुमने कहा था,"ऐ मूसा, हम एक ही प्रकार के खाने पर कदापि संतोष नहीं कर सकते, अतः हमारे लिए अपने रब से प्रार्थना करो कि वह हमारेवास्ते धरती की उपज से साग-पात और ककड़ियाँ और लहसुनऔर मसूर और प्याज़ निकाले।" और मूसा ने कहा, "क्या तुम जो घटिया चीज़ है उसको उससे बदलकर लेना चाहते हो जो उत्तमहै? किसी नगर में उतरो, फिर जो कुछ तुमने माँगा है, तुम्हें मिल जाएगा" - और उनपर अपमान औरहीन दशा थोप दी गई, और वे अल्लाह के प्रकोप के भागी हुए। यह इसलिए कि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करते रहे और नबियों की अकारण हत्या करते थे। यह इसलिए कि उन्होंने अवज्ञा की और वे सीमा का उल्लंघन करते रहे।(61)
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    निस्संदेह, ईमानवाले और जोयहूदी हुए और ईसाई और साबिई, जो भी अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया और अच्छा कर्म किया तो ऐसे लोगों का उनके अपने रब के पास (अच्छा) बदला है, उनको न तो कोई भय होगा और नवे शोकाकुल होंगे - (62)
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    और याद करो जब हमने इस हाल में कि तूर पर्वत को तुम्हारेऊपर ऊँचा कर रखा था, तुमसे दृढ़ वचन लिया था, "जो चीज़ हमने तुम्हें दी है उसे मज़बूती के साथ पकड़ो और जो कुछ उसमें है उसे याद रखो ताकि तुम बच सको।" (63)
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    फिर इसके पश्चात भी तुम फिर गए, तो यदि अल्लाह की कृपाऔर उसकी दयालुता तुम पर न होती तो तुम घाटे में पड़ गए होते। (64)
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    और तुम उन लोगों को तो जानते ही हो जिन्होंने तुममें से 'सब्त' के दिन के मामले में मर्यादा का उल्लंघन किया था, तो हमने उनसे कह दिया, "बन्दर हो जाओ, धिक्कारे और फिटकारे हुए!" (65)
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    फिर हमने इसे सामनेवालों और बाद के लोगों के लिए शिक्षा-सामग्री और डर रखनेवालों के लिए नसीहत बनाकर छोड़ा। (66)
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    और याद करो जब मूसा ने अपनीक़ौम से कहा, "निश्चय ही अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि एक गाय ज़ब्ह करो।" कहने लगे, "क्या तुम हमसे परिहास करते हो?" उसने कहा, "मैं इससे अल्लाह की पनाह माँगता हूँ किजाहिल बनूँ।" (67)
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    बोले, "हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हम पर स्पष्ट कर दे कि वह (गाय) कैसी हो?" उसने कहा, "वह कहता है कि वह ऐसी गाय हो जो न बूढ़ी हो, नबछिया, इनके बीच की रास हो; तो जो तुम्हें हुक्म दिया जा रहाहै, करो।" (68)
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    कहने लगे, "हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हमें बता दे कि उसका रंग कैसा हो?" कहा, "वह कहता है कि वह गाय सुनहरी हो, गहरे चटकीले रंग की कि देखनेवालों को प्रसन्न कर देती हो।" (69)
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   बोले, "हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हमें बता दे कि वह कैसी हो, गायों का निर्धारण हमारे लिए संदिग्ध हो रहा है। यदि अल्लाह ने चाहा तो हम अवश्य। पता लगा लेंगे।" (70)
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    उसने कहा, " वह कहता है कि वह ऐसी गाय है जो सधाई हुई नहीं है कि भूमि जोतती हो, और न वह खेत को पानी देती है, ठीक-ठाक है, उसमें किसी दूसरे रंग की मिलावट नहीं है।" बोले,"अब तुमने ठीक बात बताई है।" फिर उन्होंने उसे ज़ब्ह किया,जबकि वे करना नहीं चाहते थे। (71)
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    और याद करो जब तुमने एक व्यक्ति की हत्या कर दी, फिर उस सिलसिले में तुमने टाल-मटोल से काम लिया - जबकि जिसको तुम छिपा रहे थे, अल्लाह उसे खोल देनेवाला था। (72)
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    तो हमने कहा, "उसे उसके एक हिस्से से मारो।" इस प्रकार अल्लाह मुर्दों को जीवित करता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है, ताकि तुम समझो। (73)
_______________________________
    फिर इसके पश्चात भी तुम्हारे दिल कठोर हो गए, तो वे पत्थरों की तरह हो गए बल्कि उनसे भी अधिक कठोर; क्योंकि कुछ पत्थर ऐसे भी होते हैं जिनसे नहरें फूट निकलती हैं, और उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं कि फट जाते हैं तो उनमें से पानी निकलने लगता है और उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो अल्लाह के भय से गिर जाते हैं। और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है। (74)
_______________________________
    तो क्या तुम इस लालच में होकि वे तुम्हारी बात मान लेंगे, जबकि उनमें से कुछ लोग अल्लाह का कलाम सुनते रहे हैं, फिर उसे भली-भाँति समझ लेने के पश्चात जान-बूझकर उसमें परिवर्तन करते रहे? (75)
_______________________________
  और जब वे ईमान लानेवाले से मिलते हैं तो कहते हैं, "हम भी ईमान रखते हैं", और जब आपस में एक-दूसरे से एकान्त में मिलतेहैं तो कहते हैं, "क्या तुम उन्हें वे बातें, जो अल्लाह ने तुम पर खोलीं, बता देते हो कि वे उनके द्वारा तुम्हारे रब के यहाँ हुज्जत में तुम्हारा मुक़ाबिला करें? तो क्या तुम समझते नहीं!" (76)
_______________________________
    क्या वे जानते नहीं कि अल्लाह वह सब कुछ जानता है, जोकुछ वे छिपाते और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं? (77)
_______________________________
    और उनमें सामान्य बे पढ़े भी हैं जिन्हें किताब का ज्ञान नहीं है, बस कुछ कामनाओं एवं आशाओं को धर्म जानते हैं, और वे तो बस अटकल से काम लेते हैं। (78)
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    तो विनाश और तबाही है उन लोगों के लिए जो अपने हाथों से किताब लिखते हैं, फिर कहते हैं, "यह अल्लाह की ओर से है", ताकि उसके द्वारा थोड़ा मूल्य प्राप्त कर लें। तो तबाही है उनके लिए उसके कारण जो उनके हाथों ने लिखा और तबाही है उनके लिए उसके कारण जो वे कमा रहे हैं। (79)
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    वे कहते हैं, "जहन्नम की आगहमें नहीं छू सकती, हाँ, कुछ गिने-चुने दिनों (सांसारिक कष्टों) की बात और है।" कहो,"क्या तुमने अल्लाह से कोई वचनले रखा है? फिर तो अल्लाह कदापि अपने वचन के विरुद्ध नहीं जा सकता? या तुम अल्लाह के ज़िम्मे डालकर ऐसी बात कहते हो जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं? (80)
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   क्यों नहीं; जिसने भी कोई बदी कमाई और उसकी ख़ताकारी ने उसे अपने घेरे में ले लिया, तोऐसे ही लोग आग (जहन्नम) में पड़नेवाले हैं; वे उसी में सदैव रहेंगे। (81)
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    रहे वे लोग जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, वहीजन्नतवाले हैं, वे सदैव उसी में रहेंगे।" (82)
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    और याद करो जब इसराईल की सन्तान से हमने वचन लिया,"अल्लाह के अतिरिक्त किसी की बन्दगी न करोगे; और माँ-बाप केसाथ और नातेदारों के साथ और अनाथों और मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे; और यह कि लोगों से भली बात कहो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो।" तो तुम फिर गए, बस तुममें से बचे थोड़े ही और तुम उपेक्षा की नीति ही अपनाए रहे।(83)
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   और याद करो जब हमने तुमसे वचन लिया, "अपने ख़ून न बहाओगेऔर न अपने लोगों को अपनी बस्तियों से निकालोगे।" फिर तुमने इक़रार किया और तुम स्वयं इसके गवाह हो। (84)
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   फिर तुम वही हो कि अपने लोगों की हत्या करते हो और अपने ही एक गरोह के लोगों को उनकी बस्तियों से निकालते हो;तुम गुनाह और ज़्यादती के साथउनके विरुद्ध एक-दूसरे के पृष्ठपोषक बन जाते हो; और यदि वे बन्दी बनकर तुम्हारे पास आते हैं, तो उनकी रिहाई के लिएफ़िद्ये (अर्थदंड) का लेन-देन करते हो जबकि उनको उनके घरों से निकालना ही तुम पर हराम था,तो क्या तुम किताब के एक हिस्से को मानते हो और एक को नहीं मानते? फिर तुममें जो ऐसा करें उनका बदला इसके सिवाऔर क्या हो सकता है कि सांसारिक जीवन में अपमान हो? और क़ियामत के दिन ऐसे लोगों को कठोर से कठोर यातना की ओर फेर दिया जाएगा। अल्लाह उससे बे ख़बर नहीं है जो कुछ तुम कर रहे हो।(85)
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    यही वे लोग हैं जो आख़िरत के बदले सांसारिक जीवन के ख़रीदार हुए, तो न उनकी यातना हल्की की जाएगी और न उन्हें कोई सहायता पहुँच सकेगी। (86)
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   और हमने मूसा को किताब दी थी, और उसके पश्चात आगे-पीछे निरन्तर रसूल भेजते रहे; और मरयम के बेटे ईसा को खुली-खुली निशानियाँ प्रदान कीं और पवित्र-आत्मा के द्वारा उसे शक्ति प्रदान की; तो यही तो हुआ कि जब भी कोई रसूल तुम्हारे पास वह कुछ लेकर आया जो तुम्हारे जी को पसन्द न था, तो तुम अकड़ बैठे, तो एक गरोह को तो तुमने झुठलाया और एक गरोह को क़त्ल करते रहे। (87)
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    वे कहते हैं, "हमारे दिलों पर तो प्राकृतिक आवरण चढ़े हैं।" नहीं, बल्कि उनके इनकार के कारण अल्लाह ने उनपर लानत की है; अतः वे ईमान थोड़े ही लाएँगे। (88)
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   और जब उनके पास एक किताब अल्लाह की ओर से आई है जो उसकीपुष्टि करती है जो उनके पास मौजूद है - और इससे पहले तो वे न माननेवाले लोगों पर विजय पाने के इच्छुक रहे हैं - फिर जब वह चीज़ उनके पास आ गई जिसेवे पहचान भी गए हैं, तो उसका इनकार कर बैठे; तो अल्लाह की फिटकार इनकार करने वालों पर! (89)
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    क्या ही बुरी चीज़ है जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों का सौदा किया, अर्थात जो कुछ अल्लाह ने उतारा है उसे सरकशी और इस अप्रियता के कारण नहीं मानते कि अल्लाह अपना फ़ज़्ल (कृपा) अपने बन्दों में से जिसपर चाहता हैक्यों उतारता है, अतः वे प्रकोप पर प्रकोप के अधिकारी हो गए हैं। और ऐसे इनकार करनेवालों के लिए अपमानजनक यातना है। (90)
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    जब उनसे कहा जाता है,"अल्लाह ने जो कुछ उतारा है उस पर ईमान लाओ", तो कहते हैं, "हमतो उसपर ईमान रखते हैं जो हम पर उतरा है," और उसे मानने से इनकार करते हैं जो उसके पीछे है, जबकि वही सत्य है, उसकी पुष्टि करता है जो उनके पास है। कहो, "अच्छा तो इससे पहले अल्लाह के पैग़म्बरों की हत्या क्यों करते रहे हो, यदि तुम ईमानवाले हो?" (91)
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    तुम्हारे पास मूसा खुली-खुली निशानियाँ लेकर आया, फिर भी उसके बाद तुम ज़ालिम बनकर बछड़े को देवता बना बैठे। (92)
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    और याद करो जब हमने तुमसे वचन लिया और तूर को तुम्हारे ऊपर उठाए रखा था- "जो कुछ हमनेतुम्हें दिया है उसे मज़बूती से पकड़ो और सुनो।" वे बोले,"हमने सुना, किन्तु हमने माना नहीं।" उनके अविश्वास के कारणउनके दिलों में बछड़ा बस गया था। कहो, "यदि तुम ईमान वाले हो, तो कितना बुरा वह कर्म है जिसका हुक्म तुम्हारा ईमान तुम्हें देता है।"(93)
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    कहो, "यदि अल्लाह के निकट आख़िरत का घर सारे इनसानों कोछोड़कर केवल तुम्हारे ही लिए है, फिर तो मृत्यु की कामना करो, यदि तुम सच्चे हो।" (94)
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   अपने हाथों इन्होंने जो कुछ आगे भेजा है उसके कारण वे कदापि उसकी कामना न करेंगे; अल्लाह तो ज़ालिमों को भली-भाँति जानता है। (95)
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    तुम उन्हें सब लोगों से बढ़कर जीवन का लोभी पाओगे, यहाँ तक कि वे इस सम्बन्ध में शिर्क करनेवालों से भी बढ़े हुए हैं। उनका तो प्रत्येक व्यक्ति यह इच्छा रखता है कि क्या ही अच्छा होता कि उसे हज़ार वर्ष की आयु मिले, जबकि यदि उसे यह आयु प्राप्त भी हो जाए तो भी वह अपने आपको यातना से नहीं बचा सकता। अल्लाह देखरहा है, जो कुछ वे कर रहे हैं। (96)
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    कहो, "जो कोई जिबरील का शत्रु हो, (तो वह अल्लाह का शत्रु है) क्योंकि उसने तो उसे अल्लाह ही के हुक्म से तुम्हारे दिल पर उतारा है, जो उन (भविष्यवाणियों) के सर्वथाअनुकूल है जो उससे पहले से मौजूद हैं; और ईमानवालों के लिए मार्गदर्शन और शुभ-सूचना है। (97)
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   जो कोई अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील और मीकाईल का शत्रु हो, तो ऐसे इनकार करनेवालों का अल्लाह शत्रु है।" (98)
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   और हमने तुम्हारी ओर खुली-खुली आयतें उतारी हैं औरउनका इनकार तो बस वही लोग करते हैं जो उल्लंघनकारी हैं। (99)
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   क्या यह उनकी निश्चित नीति है कि जब भी उन्होंने कोई वचन दिया तो उनके एक गरोह ने उसे उठा फेंका? बल्कि उनमें अधिकतर ईमान ही नहीं रखते।(100)
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